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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये निभाना घोत्कम्पोत्तालितवारवाणं हषयतरङ्गिमाणमविनीतरुपसृरपाश्रिरय च मम भुजपञ्जरं कुजनिकुञ्जमिव ज्याली, पजन्योत्सनामिय सौदामिनी, कुस्कीलकन्दरमिव भुजली, जगवन्तरालमिष कालदूती, गलषिममिव मकरी, बनगनमिय निशाचरी, निजाङ्गस्पर्शबीमत्सयेब मदीयां तनुमशेषतः कण्टकयन्सी, बहुकालमात्मनुष्कर्मणः परिणतारम्भरवादविवि तसाहलेवाङ्गनिक्षेपमानणवातिसान्द्र ग्यवाप्सोत् ।
न खलु वियतेशिताकारस्य पुंसः काचिपि भवति कार्यसिद्धिरिति जानतोऽपि न मे मनागपि प्रसीदति ममः । पिशाचच्छलिसस्येव शून्यहृदयला, महाशोकतप्तस्यैव वीर्घतरमुच्य भिातम्, अग्निपतितस्येव परिवर्तनबहलता, रितस्पेवाताव मुखशोषः, कोसीधोपहतस्पेव माहविजृम्भणम्, उन्मत्तस्येव यत्किचित्मालपनम्, निषादानुगताडो रहीवन
क्वचिदेव पवनारमाति बुवा, मनोरंप पनविनमिन भावमन्धकारयत्याशाम्, आत्मनः क्षणमात्रमुयोतमानमिव प्रतिमासते, भवति च पुनर्बाष्पजलप्रवाहविनम् । अहो महाश्चर्यम् । इयं हि पुरा स्वरविहारेष्वपि रममाणा भग्नघरणेष नकाकिनी परमेकमपि बवाति, जलक्रीसासु मालमृणालस्पर्शनापि संविग्यजीवितेव मूति, कुसुमावषयेष्वगोफवलाल्पिजैसे दस हथिनी लताओं से आच्छादित मध्यवाले स्थान का आश्रय करके शयन करती है। जैसे विजली मेध प्रदेश का आश्रय करके निद्रा लेती है। जिस तरह सर्पिणी पर्वत-गुफा का आश्रय करके शयन करत्तो है। जैसे यमराज की दुती तीन लोक के मध्य का आश्रय करके शयन करती है। जैसे मकरी समुद्र के मध्य का आश्रय
के शयन करती है और जैसे राक्षसी बन के मध्य का आश्रय करके शयन करती है। क्या करती हुई उसने शयन किया ? मेरे शरीर को रोमाञ्चित करती हुई जो ऐसी मालूम पड़ती थी मानों-मेरे शरीर के छूने में ग्लानि होने के कारण से ही उसने मेरे शरीर को पूर्णरूप से रोमाञ्चित किया था। अज्ञात दुराचारवाली वह ऐसी मालूम पड़ती थी-मानों-दीर्घकाल तक किये हुए अपने पाप सम्बन्धी दुराचार की जीर्ण करने के कारण ही वह विना जाने हुए दुर्विलास-सरीखी थी ।
भारिदत्त महाराज ! उक्त घटना के घटित होने से 'निश्चय से मानसिक विचार व उसके अनुसार शारीरिक चेष्टा ( आकृति ) को प्रकाशित करनेवाले पुरुष की कोई भी कार्य सिद्धि नहीं होती। अर्थात्मानसिक विचार व उसके अनुकूल शारीरिक चेष्टा को गुप्त रखनेवाले पुरुष को हो कार्य में सफलता प्राप्त होती है उक्त नीति को जानते हुए भी मेरा मन जरा भी प्रसन्न नहीं रहता । मेरे हृदय की शून्यता ( जडता ) बैंसी होती थी जैसी ग्रह द्वारा गृहीत पुरुष की हृदय-शून्यता होती है । उस समय मेरा श्वांस वैसा विस्तृत हो रहा था जैसा महान् शोक से पीडित हुए पुरुष का श्वाँस चिस्तृत होता है। मेरे शरीर के वारे व दाहिने पाव भागों में परिवर्तन को अधिकता वैसी होती थी जैसे अग्नि में पड़ा हुआ पुरुष विशेष परिवर्तन करता है। ज्वर से पीड़ित पुरुष-सा मेरा मुख-शोष होता था। आलस्य से नष्ट होनेवाले पुरुष-सरोखो मुझे बार-बार जमाई आती थी। मेरे यद्वा तहा अनर्थक वचन वैसे हो रहे थे जैसे मद्यपान करनेवाले के वचन यद्वा तद्धा अनर्थक होते हैं। मेरी बुद्धि कहीं पर वैसी स्थान प्राप्त नहीं करती थी जैसे जिसके शरीर के पीछे घ्याध लगा अ हिराणी कहीं पर स्थान प्राप्त नहीं करती। मेरा मन भो वैसा आशा (धन व भोगादि की वाला।
को अन्धकार युक्त (शून्य) करता था जैसे वर्श-दिन अतिशयरूप से आशा ( पूर्व-आदि दिशा) को अन्धकारित ( अन्धकार से व्याप्त ) करता है और मेरा मन अपना क्षणमात्र उद्योत करता हुआ-सोखा प्रतिभासित हो रहा था तथा अश्रुजल से पूर्ण हो रहा था।
प्रसङ्गानुवाद-हे राजन् ! मैं निम्न प्रकार भली-भांति विचार करके 'अखिल-जनावसर' नाम के सभा मण्डप में प्राप्त हुआ। 'अहो महान् आश्चर्य है, कि यह अमृतमति महादेवी निश्चय से पूर्व में बन क्रीडा