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________________ चतुर्थ भावास २७ विश्रीमृतिदुःखितो युवराजः परं च बह्नपराधेहि देहिनि क्षणमात्रध्याशरणं मरणमनुग्रह इय । यदि मरनवेक्षणभुपस्थितस्य, असंभावणमासनस्थ, उपेक्षणं विज्ञपयतः, अवधारणमसमैः परिभूयमानस्य, आशाभङ्गकरणमर्थयतः प्रीतिवितरणं तदनभिमतानाम् अस्मरणं प्रियगोष्ठीषु, अनवेक्षणं तत्परिजनस्य, अपवार्य व्याहरणं स्वप्रकाशे ष्वप्यालापेषु, अनक्षसरानुसरणमसङ्गभावेष्वपि प्रस्तावेषु क्रियेत, स्पास्प्रत्यानीतश्विरमस्थाने कृतसमयः प्रणयः । साचितं श्राभिमतम् । इदमेव निश्चित्याविति वृतान्तस्यैव तस्यनतलमुपगम्य पुरावस्थितवतः प्रलयकालक लिएप्रसरस्य मकराकरस्येव निर्मर्यादमन्तविकल्पहरूलोलदोलायमान मानसस्थ, सा निवृत्यात्मनो दुविलसितमतित्वरितगतिजनितं वातमन्तरंग जयन्ती 'यह यशोधर स्त्री का घात करने के कारण सन्यासी होगया' ऐसी मेरी अपकीर्ति मर जानेपर भी शान्त नहीं होगी एवं युवराज ( श्री यशोमति कुमार ) पाप करनेवाली माता के वध से दुःखित होकर पश्चाताप रूपी रोग में प्रविष्ट होगा । 'अतः मैंने निम्नप्रकार!निश्चय किया - दूसरी बात यह है कि विशेष पाप करनेवाले प्राणी से किया हुआ मरण उसको थोड़े समय के लिए दुःख का स्थान है, अतः उसका उपकार सरीखा है। इससे यदि आये हुए पुरुष की ओर दृष्टिपात न किया जाय तो अयोग्य स्थान में किये हुए अवसरवाला प्रणय ( स्नेह ) चिरकाल तक के लिए नष्ट हो जाता है । यदि सन्मुख आये हुए पुरुष के साथ भाषण न किया जाय तो अयोग्य स्थान में किये हुए अवसरबाला प्रणय ( स्नेह ) चिरकाल तक के लिए नष्ट हो जाता है। अर्थात् जैसे सन्मुख आए हुए पुरुष के साथ भाषण न करने से स्नेह नष्ट हो जाता वैसे ही सन्मुख आईं हुई अमृतमति देवी के साथ for न किया जाय तो मेरा उसके साथ उक्त प्रकार का स्नेह चिरकाल तक के लिए नष्ट हो जायगा । यदि योग्य शिक्षा देनेवाले का अनादर किया जाय तो उक्त प्रकार का प्रणय नष्ट हो जाता है। यदि विशेष बलिष्ठ शत्रुओं से तिरस्कार किये जानेवाले पुरुष का निरादर किया जाय तो उक्त प्रकार का स्नेह नष्ट हो जाता है । यदि याचना करनेवाले पुरुष की आशा का भङ्ग किया जावे तो स्नेह नष्ट हो जाता है। यदि द्वेष करनेवाले पुरुषों से स्नेह प्रकट किया जाये तो उक्त प्रकार का स्नेह नष्ट हो जाता है । जैसे प्रेमी पुरुषों की सभाओं में प्रेमी का स्मरण न करना प्रणयभङ्ग करनेवाला होता है वैसे ही प्रिय गोष्ठी में अमृतमति देवी का स्मरण न करना भी उक्त प्रकार प्रणय को भङ्ग करनेवाला होगा । एवं जेसे प्रेमी पुरुष के परिवार की ओर दृष्टिपात न करना प्रणव भङ्ग कारक होता है वैसे ही अमृतमत्ति देवी के परिवार ( सखीजन) की ओर दृष्टिपात न करना भी मेरे उक्त प्रकार के प्रणय की भङ्ग करनेवाला होगा । जैसे स्वाधीन भाषणों में स्नेही की दूर होने की कहना प्रणय भङ्गकारी होता है वैसे ही स्वाधीन वार्तालाप के अवसर पर अमृतमति देवी को दूर होने की कहना भी उक्त प्रकार के प्रणय को भङ्ग करनेवाला होगा। जैसे वैराग्यजनक अवसरों पर भी अनादर करना प्रणय भङ्गकारी होता है वैसे ही वैराग्य व शृङ्गार जनक सभी अवसरों पर अमृतमति देवी का अनादर मेरे प्रणय को भङ्ग करनेवाला होगा | मैंने कर्तव्य निश्चित कर लिया 'मैं उस अमृतमति देबी के साथ वार्तालाप - आदि नहीं करूँगा ।' इसके बाद वह अमृतमति अपना कुकृत्य पूर्ण करके अपनी शीघ्र गति से उत्पन्न हुई बाबू पर मध्य में ही विजय श्री प्राप्त करती हुई और ऊर्ध्व श्वाँस द्वारा कञ्चुक को ऊँचा नीचा करनेवाले हृदय कम्पन को रोकती हुई उद्दण्डता पूर्वक मेरे समीप आई और उसने मेरे, जो कि दुर्विलास न जाननेवाले सरीखा होकर अमृतमति देवी की शय्या पर पूर्व की तरह सो रहा था और जिसका चित्त वैसा बेमर्यादा वाली मानसिक विकल्परूपी महातरङ्गों द्वारा कम्पित हो रहा था जैसे प्रलयकाल द्वारा विस्तृत होनेवाला समुद्र मर्याद महातरङ्गों से कम्पित होता है, बहुरूपी पिजरे का वैसा आश्रय करके अत्यन्त गाढ़ निद्रा पूर्वक शयन किया
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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