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यशस्तिलकचम्पूकाव्यै लषः पालव इव प्रवेपमानावरदलः, त्रिपुरवाहप्रवृत्ततिः पार्वतीपतिरिव भ्रकुरिमारितभालमप्या, साप्यमानावगाहः बाटाह इव लोहिततरवक्षःस्थलः, तिमिरचीधिकाभिरिवामर्षात्कलिकाभिरघोक्रियमाणलोचनस्समधाम कोशावर्धानुरोधमसिमहमाकृष्टवान् । अमवसच वैवात्तदंच में प्रवीमवोधासिव मनस्तमस्तनुच्छेवः । भाः किमिदमहो कर्माहमनुष्कातं पसितः । न खलु नार्य इव शुभमशुभ वा कर्म सहसंबारम्भन्ते मिनीतमतयः, नापि विपदि संपवि या कृपणप्रकृतय इवाशु विकियां पयन्ति महानुभावाः, न पाल्पमेधसामिव महोयसामुपपन्ना भवम्ति कामचारेण प्रवृत्तयः, न चतबगहनं कितु प्रातभयंब लज्जायनतमस्तकेन शिरः पिघाय स्थासम्पम् । गोचितपं च ममेष प्रणपिना पुरः पश्चात्तापधुःप्रतिष्ठानमिवमनुष्ठामम् । श्रोतम्या भविष्यन्ति मर्यव कर्णकटताकाराः पुरजमस्य धिक्काराः । सुष्ठ मलिनोकृतं स्यान्मयवात्मीयं मामीयं च फुलम् । सोदव्या मयव स्वदुष्यनिरुत्त रविषाश्चित्तशस्यस्पृशः कुलवद्वानामभिषाः । अहमेवोदाहरणं भविष्यामि दुखीनां कुदम्पविघटने । कलुषतामेप्रत्येषवास्थाने बिनियोजिता खङ्गलता।
स्त्रीवधावयमजनि तपस्योति मृतस्यापि मे न बुर्यशः प्रशान्तिमर्हति । शोकातके पतिष्यति । सापराषसहुआ चन्द्र कान्ति-हीन होता है वैसे ही में भी दूर की हुई मुख-कान्तिवाला हुआ। जैसे निकट मृत्यु प्राणि-समूह चञ्चल देह से व्याप्त होता है वैसे ही मैं भी विशेष चञ्चल शारीरिक अवमव-युक्त हुआ। में वैसा कम्पित होते हुए ओवदलवाला हुआ जेसा छेदे जानेवाला विलास-युक्त पल्लव कम्पित पल्लव-युक्त होता है। जैसे देत्य विशेष के भस्म करने में प्रवृत्त हुई बुद्धिवाला रुद्र भकुटियों के चढ़ाने से वक्र हुए ललाट के मध्यभागवाला होता है वैसे ही में भी भौंहों के चढ़ाने से वक्र किये गए मध्यभागवाला हआ। जैसे विशेष तपाए जानेवाले मध्यभागवाली कड़ाही विशेष रक्त होती है वैसे मैं भी विशेष रक्त वक्षः स्थलवाला हुआ और अन्धकार लहरीसरीखों क्रोध-तरङ्गों से मेरे नेत्र अन्धे किये जा रहे थे।
हे मारिदत्त महाराज ! कर्मयोग से तलवार खींचने के अवसर पर ही मेरे मन में स्थित हुआ क्रोधरूपी अन्धकार-शरीर वेसा नष्ट हो गया जैसे दीपकके जलाने से अन्धकार नष्ट होता है। उस समय मैंने निम्न प्रकार चिन्तवन किया
'अहो आत्मन् ! दुःख है कि मैं ( यशोधर ) इस अष्टव व अमृतमति देवी के वध कर्म करने में श्यों प्रवृत्त हो रहा हूँ? क्योंकि विद्वान् पुरुष स्त्रियों-जैसे शुभ व अशुभ कर्म सहसा ( विना बिचारे ) आरम्भ नहीं करते। जैसे मुखं लोग विपत्ति व संपत्ति के अवसर पर विकृत हो जाते हैं, अर्थात् विपत्ति में व्यालित य सम्पत्ति में हर्षित हो जाते हैं वैसे महापुरुष विपत्ति व सम्पत्ति के समय वित नहीं होते । जैसे मुर्ख पुरुषों की चेष्टाएँ स्वेच्छाचार पूर्वक होती हैं वैसी महापुरुषों की नहीं होती। यद्यपि मेरे लिए इन दोनों का वध करना कठिन नहीं है किन्तु ऐसा करने से मुझे प्रात: काल में ही लज्जा से नम्रीभूत मस्तकबाला होकर मस्तक ढककर स्थित रहना पड़ेगा और स्नेही पुरुषों के आगे मुझे ही पश्चातापरुपी दुष्ट मूलवाला इस अमृतमति देवी का कुकृत्य प्रकाशित करके शोक करना होगा एवं कानों में कटुकता प्राप्त करनेवाले नागरिक लोगों के धिक्कार वचन मुझ से हो श्रवण करने योग्य होंगे। मुझ से ही मेरा व मामा का वंश विशेष मलिन किया हुआ होगा। मुझ से ही अपने कुल के ज्येष्ठ पुरुषों के वचन, जो कि मन को शल्य सरीखे छूनेवाले हैं और जिनके प्रकार अपनी स्त्री के वन लक्षणचालं पाप में उत्तरहीन है, सह्न करने योग्य होंगे एवं मैं ही कुटुम्बी जन के नष्ट करने के विषय में दुष्ट बुद्धिवालों का उदाहरण होऊँगा और यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुई तलवार अयोग्य स्थान में अधिकृत हुई कलुषता प्राप्त करेगी। अर्थात्-वर देनेवाली च विजय लक्ष्मी प्राप्त करानेवाली नहीं होगी।