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________________ चतुर्थं आश्वास वन सुखति । तत्किं नु खलु करोमि । नन्वहं हताशा । बलीयश्व ने निर्भागिन्याः पुराकृतं दुष्कृतम्, म पोमि जीवितेश, मनोनुरागववमेन मुषागलल्लावण्यकेन फायेन सदा सन्निधातुम् । तत्समागम समये च यदि त्वामेव हृदये निधाय तेन सह नासे, सदास्यामेव निशि भगवती कात्यायनी मां पातु । पृथिस्पेनसा व भागिनो स्याम्प्रसीद । एष से पादपतनं प्रणयदण्डः संभावय । हृवमुपकरणम् । आलिङ्गध निर्वापयेमकान्यङ्गकानि । गतेनं पर्याप्तमन्तरायेण ।' इत्यनुनयन्तो व दुष्टा । तव पड़वानलपरिष्वङ्गमिव मे संसारसुखतरङ्गस्यापुनरागमनवेलशामिल विषयाभिलाषगजस्य लयोरभिसन्धिमात्मसमक्ष विधिमवेक्ष्य आशुशुक्षणिकक्षीकृतः क्षितिरुह् इव दह्यमानान्तदेह, च्युतमर्यादमुद्रः समुद्र हवानिवार्य कोपप्रसरः संहिकेयगृहीतशिशिरकर व विभिन्नाननकान्तिः, बरसन्नमरणः प्राणिगण इव कम्पोसरलतरकरणः छिद्यमान हूँ । इस समय में आपके चरण कमलों की शपथ करती हूँ । यदि में स्वाधीन होती तो यह प्रत्यक्ष प्रतीत हुई रात्रि [ आपके बिना 1 मेरी कुशलता पूर्वक नहीं व्यतीत होती । किन्तु निन्दित ब्रह्मा ने मुझ 'अभागिनी को पराधीन बनाया है । वह कामदेव पिशाच सरीखा आकर मुझे क्षणभर भी नहीं छोड़ता । अर्थात्-तुम्हारो अभिलाषा से ही में जीवित रह रही हूँ, इसलिए मैं अनुनय पूर्वक पूछती हूँ कि मैं क्या करू ? अर्थात् — मेरा क्या दोष है ? विधि का हो दोष है । मेरा मनोरथ निश्चय से नष्ट हो गया। मुझ पापिनी का पूर्वजन्म में उपार्जन किया हुआ पाप विशेष शक्तिशाली है, जिससे में तुम्हारे पास इस शरीर से, जिसकी कान्ति निरर्थक नष्ट हो रही है, सदा निकट रहने के लिए उसप्रकार समर्थ नहीं हूँ जिसप्रकार आपका अनुराग मेरे हृदय में सदा निकट रहता है । अर्थात् -- जिसप्रकार आप प्राणेश्वर में मेरा मानसिक अनुराग सदा रहता है उसप्रकार शरीर से समीप रहने के लिए समर्थ नहीं हूँ । यदि में यशोधर के साथ काम सेवन के अवसर पर आपको ही हृदय में धारण करके नहीं रहती हूँ तो इसी रात्रि में परमेश्वरी चण्डिका माता मुझे खाजाय और पृथिवी के पापों की भागिनी हो जाऊं । इसलिए प्रसन्न होइए। यह प्रत्यक्ष प्रतीत हुआ आपके चरण कमलों में नमस्कार ही प्रेम प्रायश्चित्त है, उसे ग्रहण कीजिए। इस उपकरण ( कपूर, कस्तूरी, चन्दन-विलेपनादि ) को ग्रहण कीजिए। इन शारीरिक अङ्गों को आलिङ्गन देकर सुखी कीजिए। व्यतीत हुआ अन्तराय ( विघ्न बाधा ) ही पर्याप्त है। अर्थात् — इतने समय तक जो में न आ सकी वही काफी है ।' इसके बाद मैंने उन दोनों ( अमृतमति देवी व अष्टव) का वध करनेके लिए स्थान में से आधी निकली हुई तलवार खींची। [ हे मारिदत्त महाराज ! इसके पूर्व मैंने क्या किया ? ] मैंने उन दोनों अष्टवक व अमृतमति का ऐसा कुकृत्य देखा, जो कि संसार समुद्र सम्बन्धी सुख की लहर सरीने मुझे बडवानल के सम्बन्ध-सा था । अर्थात् जैसे समुद्र तरङ्ग को बडवानल अग्नि का सम्बन्ध दुःखदायी होता है वैसे ही मुझे उन दोनों का कुकृत्य दुःखदायी हुआ। जो विषयों की लालसारूपों हाथी-सरीखे मुझे अपुनरागमनये लजद्वार सरीखा था । अर्थात् — जैसे हाथी जिस दरवाजे से पीड़ित होता है, उस दरवाजे से फिर दूसरी बार नहीं आता, उस दरवाजे को 'अपुनरागमन वेलज-द्वार' कहा जाता है वैसे ही उन दोनों का दुविलास भी, मेरे विषयों की अभिलाषारूपी हाथी को अपुनरागमन वेजल द्वार- सरीखा था एवं जो, मेरी आत्मा द्वारा ( स्वयं ) प्रत्यक्ष किया हुआ था । उससे में वैसा जाज्वल्यमान हृदयवाला हुआ जैसे अग्नि से व्याप्त हुमा वृक्ष जाज्वल्यमान मध्यभागवाला होता है । [ उस समय ] मेरो क्रोध-प्रवृत्ति वैसी निषेध करने के अयोग्य हुई जैसे मर्यादा -रहित समुद्र को क्रोध प्रवृत्ति निषेध करने के अयोग्य होती है। जैसे राहु से निगला ४
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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