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________________ ર यशस्तिलकश्चम्पूकाव्यै स्थानमिव नितरामुदेजनीयम् अखण्डमण कुलमिव मनुष्यरूपेण परिणतम्, अलिमिय वैरूप्यमवचित्य वेषसा निष्पादितम्, अतिस्थूलवासस्फूर्जर क्षिपरिसरम्, घोषणपोरणघोषधरितदिग्विवरम् उबूप्त निद्राभरण्यावीर्णच बनकन्दरम् उपलसंपुटनिष्पीडितमिव सर्व तरपूर्वभागम् उभयतः परिकृष्टमिव दोघंतरापरागम्, छह करिणिजनस्य दृष्टिविवमापतेदिति मषीपुण्डमिव द्विपसमीपविकिम् अखिलगजोपजीयि फेलाजोवनमण्डव जूनामपवं लेसिकापसव शुरु कशामलीविटपकर्कशस्पर्शे स्मूले धरणाष्ठमूले विनिवेश्य मत्प्रेमप्रासाव परिलोपोगवन्ानलस्फुलिङ्गमिय करमुत्थापयन्ती, पुनयरिपतेन च तेम फिचिलीलमाता वितुदलिनेन वामहस्तेनाकृष्य कुरङ्गाङ्ककलङ्कसंकाशं केशपाशमङ्कुश प्रहारनिदयेन चेतरेण करेण हन्यमाना, 'अये प्रियतम, अलमलमनेनावेगेन । क्षमस्वनमेकमनुचितसंबन्धमपराधम् । I आकर्णय सावत् । एवास्मि तव दासी धृतो व ते मया पाधी । इयं च वासतेधी मम कुशलेन मा विभासीत्, यद्यहमात्मवशेय स्थितवती । किं तु ह्तविधिनाहं मन्दभाग्यवती परवती विहिता । स च तपनः क्षणमपि दुष्ट - जानुओं ( घुटनों ) के प्रदेश महान कछुए के खर्पर-सरीखे हैं। जिसकी जाएं सूजी हुई नसों की गाठों से सर्वत्र व्याप्त थीं। जिसके पैरों की गाठों की दोनों हड्डियों ऊपर निकली हुईं व उत्कट हैं। जिसके फटे हुए पाँच अनेक प्रकार की खुशियों से व्यायों से शुक थे। जो पाप-समूह सरीखा महान कष्ट से देखने लायक था । जो श्मशान सरीखा अत्यन्न भयानक था । जो ऐसा मालूम पड़ता था— मानों - मनुष्य पर्याय को परिणमन हुआ मण्डूर ( लोह-मल ) समूह ही है । अथवा मानोंपूर्वजन्म संबंधी पापकर्म द्वारा समस्त कुरूपता को ग्रहण करके निर्माण किया गया है। जिसके उदर का पर्यन्त भूमि-प्रदेश महान वासों से अप्रतिहतव्यापारशाली था। जिसने उत्पटित नासिका के निद्राशब्दों से दिशाओं के छिद्रों को बहरे या जरित किये हैं। जिसको मुखरूपी गुफा उन्माद को प्राप्त हुए निद्रा भार से विदारित की गई है। जिसका पूर्व शरीर लघु होने से ऐसा मालूम पड़ता था— मानों - पाषाणपटल का जोड़ा पित हुआ है। जिसका नीचे का शरीर विस्तृत है, इससे ऐसा प्रतीत होता था - मानोंअपर शरीर के दोनों भागों में लाना गया है। जो कज्जल के तिलक-सा हाथियों के समीप नियुक्त हुआ ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों- इन हाथियों के निकट महावन समूह का दृष्टिविष ( नजर-दोष ) पड़ जायगा, इसलिए मानों - जो कज्जल-तिलक ही है एवं जी समस्त महावत लोगों का जूंठा भोजन करनेवाला या 1 [ हे मारिदत्त महाराज मैंने उक्त 'अष्टवद्ध' के सामने कैसी ? या क्या करती हुई ? अमृतमलि देवी देखी जो ( अमृतमति ) उसके पैरों के अंगूठे के समीप, जो कि विशेष सूखी हुई शाल्मलि वृक्ष की शाखासरीखा कठोर स्पर्श बाला व महान् था, बेठकर उसके हाथ को, जो कि मेरे प्रेमरूपी महल को नष्ट करने के लिए उत्कट बच्चाग्नि के कण सरीखा था, ऊपर उठा रही थी । एवं जिसके चन्द्र लाञ्छन सरीखे श्याम केशपाश सोकर उठे हुए व कुछ गाली देते हुए अष्टषक द्वारा राहु- सरीखे मलिन बाएँ हाथ से खींचे गए वे और जो अङ्कुश के निष्ठुर प्रहार सरीखे निर्दय दाहिने हाथ से पीटी जा रही थी एवं जिसने उस अष्टब से निम्नप्रकार प्रार्थना की थी । ‘अहो स्वामिन् ! इस प्रत्यक्ष प्रतीत हुए क्रोध से कोई लाभ नहीं | अद्वितीय, प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुए व प्रयुक्त मेरे अपराध को क्षमा कीजिए। अनुक्रम से सुनिए। यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुई मैं आपकी दासी
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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