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________________ चतुर्थ आश्वास दत्ययसितचेतसा, सोत्तालं विहितनिजनिकटचतिक्षगवाहवषेण गवेषयता च तत्पदवीम्, राजमन्दिरस्य प्रथमकक्ष्यायो दक्षिणस्या विश युधराजविनोवहस्तिमो विजयमकरध्वजनामधेयस्थापानयाषितरपतिनि कटङ्करकुटीरके करिकवलावशिष्टयवसप्रस्तर विस्तारण्यवगुण्ठितरज्नुपुञ्जपरिकल्पितशिरस्पबे निजायन्तम्, इभाभ्पनकपःपिहितलज्जास्पानम्, अतिकठिनकचकण्टकोडमरमुण्टमण्डलम्, अनवानुपदीनापटल समश्रवसम्, उत्तानकपिकराभौगनिभललाम्, अङ्गारलिक्षितकशेखासमानभूकम, उपचनशषिरातिशामिलोचनम्, अर्धवाजिनमलिनपक्ष्मपुटम्, अविषमभतनलदण्डद्वपसदृशनासोरम्, उदरविकर्तरितसंघाटतटतुलितोभयवशानवसनम्, अतिपुराणकुजकोटरप्रतिमपल्लम्, असमस्यापितवरातकविकटवन्तम्, अजमधूदुर्दर्शचिबुकमध्यम्, एरणकाण्डविम्बिधमनीगलनालम्, अवालधोरणदलपटिसकिटिकास्यमुटवक्षसम्, उहलम्बितमृतमोनसानुकारिक्षिपस्तिनिर्गमम्, मनिलभूतमात्राध्मातजठरम्, अवमालानुकारिकढीभागम्, अग्निलतिस्थाणुगणनोरकम्, अतनुर्मकर्षरप्रतिष्ठापठीवत्प्रदेशम्, उन्नसिरान्यिाटिलपिकिम्, अग्निर्गतोत्करण्टिकाकोकसम्, अनेकचिपाधिकाविलविरलयकाङ्गुलिफटकपावम्, अघसंघातमिव बुनिरोकरम्, अमङ्गलको ढूंढते हुए मैंने ऐसे 'अष्टवक' नामवाले महावतों में नीचमहावत से प्रार्थना करती हुई महादेवी देखी । मैंने मन में किस प्रकार का निश्चय किया ? "अहो आत्मन् ! इस महादेवी का कोई (कहने के लिए अशक्य ) अपूर्व ही महान् अद्भुत करने में उद्यम दिखाई देता है, क्योंकि इसने इस प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुई रात्रि में, जिसमें अर्धरात्रि की बैला थोड़ो-सो समाप्त हुई है, अकेलो व्यभिचारिणी स्त्रीजनों के योग्य चेष्टा-सरोखी होकर शीघ्न प्रस्थान किया, इसलिए इस विषय में हृदय में सन्देह उत्पन्न करनेवाले विचार-समूह से क्या लाभ है ? अतः मैं ही इस महादेवो के अभिप्राय का परिपाक देखता हूँ । अर्थात्-मैं दूसरों की कही हुई बात नहीं मानता।' [ उक्तप्रकार का मन में निश्चय करनेवाले मैंने कैसे 'अष्टवक' नामके नीच महावत से प्रार्थना करती हुई महादेवी देखी?] जो ऐसी बुक्षशाखा की कुत्सित कुटी में नींद ले रहा है, जो कि राजमहल के प्रथम प्रकोष्टक की दक्षिणदिशा में वर्तमान 'विजयमकरध्वज' नामवाले युवराज ( यशोगति कुमार ) संबंधी क्रीडागज के राज्य स्थान से ममीप थी एवं जिसमें हाथी के पास से बची हुई धारा का विछोना विछा हुआ था तथा जिसमें कुण्डलाकार की हुई रस्सियों को श्रेणी से बनी हुई तक्रिया वर्तमान थी, जिसने हाथियों के तेल-मालिश संबंधी ( मलिन ) वस्त्र द्वारा अपने अण्डकोश आच्छादित किये हैं। जिसका मुखमण्डल अत्यन्त कर्कश केशरणो कोटों से भयानक जिसके कान जोणं जता के चमड़े सरोचे हैं। जिसका ललाट फेलाए हए बन्दर के हाथ के विस्तार-सरीखा है । जिसको दोनों भ्रकुटियां कोयले से लिखी हुई मलिन एकरेखा-सी थीं। जिसके नेत्र नारियल के खप्पड़ के छिद्र-सरीखे भद्दे थे। जिसके नेत्र-पटल आवे जले हुए चमड़े जैसे मलिन है। जिसकी नासिका समरूप से धारण किये हुए कमलदण्डों के जोड़ों-सी थी। जिसके दोनों ओष्ठ, चूहों द्वारा नानाप्रकार से कुतरे हुए चनों सरीखे थे। जिसके गाल अत्यन्त जीर्णवृक्ष की फोटर-सरीखे थे। जिसके दांत पंक्ति-रहित कौड़ियों जैसे वाहिर निकले हुए थे 1 जिसकी ठोडी बकरे की दाढ़ी-सो देखने में भद्दी थी। जिसका प्रकट हई नसोंबाला गलारूपी नाल ( कमल-इंठल ), एरण्ड वृक्ष के तना या पत्रसमूह सरीखा है। जिसका हृदय विशाल तृणविशेष-चित कुटी जेसा ऊँचा-नीचा है । जिसकी बाहुओं का विस्तार कपर लटके हुए व मरे हुए दो सांपों सरीखा है । जिसका उदर वायु से भरी हुई लुहार को धोंकनी-सा भरा हुआ है। जिसकी कमर ओखलो जैसी है। जिसके ऊरु अग्निसे आधे जले हुए ठों सरीखे हैं। जिसके
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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