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________________ २२ यशस्तिलकचम्पूकाब्ये इति भगवतः कुसुमारस्य धरिसचिन्तासन्सानस्तिमितान्तःकरणः स्लोकोन्मेषस्फुरितलोचनपर्यन्तो निवामिवामकरवम् । महादेवी तु मा स्वभावमुप्तमिवालक्ष्म, निभतमाक्षिप्य मत्कण्ठदेशानुपधानीकृत करम्, अवेक्ष्य मृवर्मुहुराकुलाफुलविलोचना मवीयाननम्, उत्सृज्य शनःशनैः शयनम्, उपविषायार्घमुहूर्तमानं पहिरन्तश्चाटनचाफ्लत्यम्, अनुवितक्यं निःसंचारतया शून्यतावन्ध्यमित्र राजभवनमध्यम्, अवकीर्यात्मनः शोलमिव पम्मिल्लकुसुमानि, परामृश्य सरितमिवाङ्गरागम, अवनाय हितोपदेशामिव कर्णाभरणम्, अवघोर्य मत्प्रणयमिष वयभूषणम्, अवधूय प्रियसखोमिष काचीवाम, निर्भत्स्य बान्बदमिव नपुरयुगलम्, अपहाय बहायकोघितपतिक्षेव सकल वलपारिक भण्डनम्, अन्यच्च राजमहिषोयोग्यमाकल्पम्, अतिरवरितमुपाल निजासन्नचरचामरधारिणोवेया विषाय विधिषर्षोद्गलिप्तमुपकरणमुत्सङ्गाधिकरणमसंधाय च कपाटपुटमाश प्रस्थितवती । ममाप्यकरवा कालक्षेपम् 'अहो, महादेव्याः कोऽप्यपर एव महासाहसव्यवसायो लक्ष्यते । यवस्थामपंरात्रवेश्यायां निश्यकाकिन्यसतीजनोचिताचरणेव लथुतरमुच्चालिता। तालमत्र चित्तश्रमकारिणा विचारचक्रेण । अबलोकयेयमहमेवास्यास्तावबाकूतपरिपाकम् ।' यह प्रस्तुत प्रदेश में निवास करता है, यह कैसे जाना जाता है ? क्योंकि इस प्रदेश पर वर्तमान रोमावली के मिष में रस कामदेव की हाथी के इन्ते को दिखाई देनेवाली सैंड, जिसका शरीर इस नाभिरूपी बावड़ो पर फैला हुआ-सा है, दिखाई दे रही है ||१४|| उक्त प्रकार से मैं, जिसका मन श्रीमान् कामदेव संबंधी चेष्टा की चिन्ताश्रेणी द्वारा निश्चल है और जिसके नेत्रों का प्रान्तभाग कुछ नेत्रों के उद्घाटग द्वारा स्फुरित ( तेज-व्याप्त) हो रहा है, उस महादेवो के पलङ्ग पर नींद-सी लेता हुआ। हे मारिदत्त महाराज ! मेरी पट्टरानी अमृतमति महादेवी ने तो मुझे स्वभाव से शयन करता हुआ-सा देखकर मेरे द्वारा तकिया रूप की हुई अपनी बाहु को मेरे कण्ठदेश से धीरे से खींचकर शीघ्र प्रस्थान किया। प्रस्थान करने से पहले, अतिव्याकुल नेत्रोंवाली उसने वारम्बार मेरा मुख देखा। बाद में उसने धीरे-धीरे पलङ्गको छोड़कर बाह्यरूप से व मन से गमन करने की चञ्चलता आघेक्षण में करके राजमहल के मध्यभाग को, जिसमें किसी का प्रवेश न होनेके कारपा शून्यता-सहित-सा निश्चय करके अपने बंधे हुए कोशपाशों के पुष्प उसप्रकार फैके जिसप्रकार उसके द्वारा अपना उज्वल ब्रह्मचर्य फेंका जा रहा है। बाद में उसने सदाचारसरीखा अङ्गराग ( कपूर, कस्तूरी, आदि के रस का विलेपन) दूर किया । पश्चात् उसने कर्ण-कुण्डल-आदि आभूषण उसप्रकार तिरस्कृत किये जिसप्रकार गुम्वचन तिरस्कृत किये जा रहे हैं। बाद में उसने वक्षःस्थल के आभूषण ( मोतियों की माला व हार आदि ) वेसे दूर किए जैसे उसके द्वारा मेरा प्रेम दूर किया जा रहा है। इसके बाद उसने प्यारी सखो-सी कमर की करधोनी दूर की। बाद में बन्धु सरीखे नूपुरों के जोड़ों को उतारकर विधवा-सरीखी होकर इसने समस्त हस्त व पाद को आभूषण ( कटकादि ) दूर किए एवं दूसरा पट्टरानी के योग्य वेष को छोड़ा । इसके बाद शीघ्र ही अपने समीपवर्ती वर ढोरनेवाली का वेष धारण करके उसने उत्तरीयबस्त्र और उपकरण ( वक्षःस्थलपर धारण किया हुआ जम्फर वगैरह ) को सिकुड़ा हुआ करके किवाड़ों के जोड़े खुले छोड़कर शीघ्र प्रस्थान किया । हे मारिदत्त महाराज ! मैंने भी निम्नप्रकार मन में निश्चय करते हुए कालक्षेप न करके उत्सुकता से अपने समीपवर्ती अङ्गरक्षक का वेष धारण करके उस महादेवी के मार्ग १. वर्तमानालंकारः।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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