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________________ घष्ठ आश्वासः २३३ होकरपवधिमाल अपायकपरवशास्वनि सं मुहर्मुहमहीतले निपतन्स मनुनिग्नमन मरित्रः प्रकामदुर्जयखर्जना जनमर्ज रिसमा सामोरपडपिजरेग भुजपकनरेणो बानीयामीय चाधानवेश्मोवरं स्वयमेव समाचरितोधितोपकारस्तवभिसोन्मेषसारंराहायपशान्ताशना "योस्कण्ठमाकण्ठं भोगयामास । मायामनिः पुनरपि तन्मनोजिमा समानमानसः प्रसभमलिगम्भोरगलगृहाफुह रोज्जि' हानघोरघोषासिपासपन पणितापमन' मप्रतिध पदावमोत् । भूमिपतिरपि 'आः, करमननिष्ट, यन्मे मन्यभाग्यस्य गृहे गृहीताहारोपयोगस्पास्य मनेमनःखेदपादपवितदितिः समभूत्' इत्युप' कष्टानिष्टषष्टितषहमांसामान धिनिन्दन्मापामयामक्षिकरमण्डलितकपोलरेखादेतन्मुवावसराललालापिलानमन मिचिरावियोवरसौन्वयनिकटेनाअलिपुटेनावापाशाय मंदियामुवसृजत् । पुनश्चो चोदगी!वीणदुवर्ण रनिकरे ममिन' भनिभरारम्मपतितशरीर सप्रयलकर "स्पामसीम समुत्थाप्य जलजनितक्षालमप्रसङ्गमुत्तरोयाकूलाइवत्तदिसप्तसलिलसङ्गमङ्गसंवाहनेनासुकम्पषिभानोचितवचनरचनेन ए साधु समास्वासयत । तदनु२१ प्रमोवामृतामन्वहक्यालबालबलमोल्लसत्प्रीतिलतानिः सुरवरोनियंपवाय सद्दर्शनषवणीत्कण्ठित हरि त्रिमियो स्पावि परिषवि परगुणग्रहणामहनिघानेम विषप्रधानेन प्रापराज्यास मज्यामिजितजगत्त्रयोनिजनामधेयप्रसिद्धिको तरल केसर-सरीखे सुनहले भुजा रूप पञ्जर से उठाकर भोजनशाला के मध्य लाया और स्वयं उसका उचित उपचार करने लगा एवं उसकी इच्छा की उत्पत्ति से मनोज्ञ आहारों से कण्ठ तक ऐसा भोजन कराया, जिसमें उसकी भोजन की इच्छा शान्त हो गई। पश्चात राजा का मानसिक अभिप्राय जानने के इच्छक मनवाले उस मायावी--बनावटी मति ने ऐसा विशेष वमन ( उल्टी ) किया, जिसमें अत्यन्त गंभीर गलेरूपो गुफा के छिद्र से वाहिर आ रहे भयानक शब्दों के परस्पर ताड़न की अधिकता से उसका शरीर कम्पित हो रहा था और जो निविधन (बाधा-रहित । था। उक्त घटना को देखकर राजा ने कहा-'आः 1 मुझे महान् कष्ट उत्पन्न हुआ, क्योंकि भाग्यहीन मेरे गृह में आहार ग्रहण करने वाले इस मुनि को मेरे मानसिक खेदरूपी वृक्ष को बढ़ाने के लिए वेदिका-सरीखी उल्टी हई।' इस प्रकार निन्दनीय व अनिष्ट चेष्टा के मार्गरूप अपनी आत्मा की निन्दा करता हुआ वह राजा मायामयो मक्खियों के झुंड से को हुई गालों की रेखा वाले इस मुनि के मुख से निकला हुआ व निरन्तर बहने वाली लार से सना हुआ अन्न अपने हाथों की दोनों अंजुलियों से, जो कि लक्ष्मी वाले कमल के मध्य में रहने वाले सौन्दर्य-सरीखों है, बार बार उठा उठाकर भूमि पर फैंकने लगा। पश्चात् वमन किये हुए व प्रकट हुए दुर्गन्धित ओदन-समह पर मायामयी-बनावटी मूर्छा के विशेष आरम्भ के कारण गिरे हुए शरीर वाले साधु को प्रयल-सहित हाथों के बल की सीमापूर्वक उठाया। पुनः उसने उसे जल से धोने का प्रसङ्ग (संबंध) किया और दुपट्र के कोने से सुखा कर दिया ।पुनः पगचम्पी द्वारा और दयालुता के विधान वाले योग्य वचन बोलकर उसने उसे अच्छी तरह आश्वासन दिया। पुनः राजा को वैयावृत्य देखकर मुनिवेषधारी उस देव के प्रमोटरूपी अमत से परिपूर्ण हृदयरूपी मयारी-समूह में प्रीतिरूपी लता स्थान पाकर लहलहाने लगी। फिर उसने विचार किया सम्यग्दर्शन के श्रवण में उत्कण्ठित हृदयबाली देवों की सभा में दूसरों के गुणों को ग्रहण करने के आग्रह की निधिरूप इन्द्र ने बहुत १. रोग। २. बास्वनितं मनः। ३. चित्तं । ४. उत्पत्तिः । ५. उद्धृत्य । ६. रसवतीगृह-मध्यं । ७. उपशान्ता अशनाय उत्कण्या यस्य । ८. ज्ञातुमिच्छन् । ९. विवरात् । १०, उद्गच्छन्तः ये घोगः शब्दाः तेषां परस्परताडनं 1 ११. बहुल । १२. शरीर। १३. निर्विघ्नं पान्तः ( उन्टी)। १४, वेदिका । १५. निन्दनीय चेष्टा । उपकुष्टं सुप्तं 1 १६. श्रीः । १७. परित्यक्तवान् । १८. बोदनसमूह । १९. भमिः पूर्तत्वं, मायाश्रमता । २०. स्थाम वलं । २१. ततः पश्चात् । २२.देव २३. कीतिः । ३०
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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