SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३२ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये रोरुकपुरस्य प्रभोः प्रभावतीमहादेबीविनोदायतनादौसायना मेदिनीपतेः सहर्षनशरीरगचिकित्सायामपरः कोऽपि शान्ति. मतिप्रसरो मोसलक्ष्मीफटाक्षावेक्षणालण्णपात्र मत्य क्षेत्रे नस्तीरयेत व वासवास नेशस्त्रियः पुरंपरोदितासहमानप्रशस्तत्र महामुनिसमूह प्रचारप्रचुरे नगरेऽवतीर्थ सर्वाङ्गामिनाप्रतिष्ठ'कुष्ठकोष्ठक निष्ठभूत बौद्रकोपतवेमसिलवेहिसंयोहोजनं भवणेक्षणघ्राण गरविनिर्गलबर्गल"पूयप्रवाहमूर्घस्फुरितस्फोट पुटचेष्टितानिष्टमक्षिकालिप्ताघोषशरीरमभ्यन्तरोच्छव पशुकोयो'" सरङ्गत्वगन्तरालप्रलोनालिनलमा' सीरमविच्छिन्नोग्र वतुच्छक 30न्न सृक्क सारिणीसरी सततलालासामममवरतस्रोतःसृतातीसारसंभूत वीभत्सभावमनेक शोषिशिवासिखोत्पात निपाताभिता शुचिराशिर्वर्शवपुषषिषमाषायावनामावनीपतिभवनमभात् । भूपतिरपि सप्ततलारराषसोपमध्यमध्यासीनतमसाध्यग्याधियिषुरषिषणापोनं विष्वाणाच्येषणाय निजनिलयमा लीयमाममवलोक्य सौत्सुक्यमागत्य राजा है। उसके सरीखा सम्यग्दर्शन रूपो शरीर के रोग का इलाज करने में व ग्लानि न करने में क्षमा रूपी बद्धि का प्रसार करने वाला दूसरा कोई व्यक्ति मुक्ति रूपी लक्ष्मी के कटाक्षों के देखने के लिए परिपूर्ण पात्र स्वरूप इस मनुष्य लोक में नहीं है। जब 'वासव' नाम के देव ने उक्त बात श्रवण की तब उसकी बुद्धि इन्द्र की बात सहन करने में अगस्य हई। इसलिए वह उसकी परीक्षा करने के लिए नामुनि-समूह के बिहार को बहुलतावाले रोहकपुर में आया और उसने अपनी बिक्रिया से ऐसा कोढ़ी मुनि का रूप धारण किया, जिसमें उसके समस्त अङ्ग सर्वाङ्गीण व्याधि ( रोग ) से अशोभन कोढ़ के संग्रहागार थे। जिसका शरीर थूके हुए कफ की बहुलसा से पीडित था जिसे देखकर समस्त प्राणी-समूह को ग्लानि उत्पन्न होती थी। जिसमें उसके श्रोत्र, नेत्र, नासिका व गले के छिद्रों से निरन्तर दुर्गन्धि पोप-प्रवाह प्रवाहित हो रहा था-बह रहा था। जिसके समस्त शरीर पर बड़े बड़े पके हुए फोड़े प्रकट रूप से दृष्टिगोचर हो रहे थे एवं उनके पकने-फूटने-आदि के कारण समस्त शरीर पर अनिष्ट मक्खियाँ भिनभिना रही थी। जिसके समस्त नख व नासिका [कुष्ठ रोग के कारण गल जाने से | से ] भीतरी सुजनवाले व विशेष पोड़ा-जनक त्वचा के मध्यभाग में विशेष रूप से प्रविष्ट हो गए थे-घुस गये थे। जिसके निरन्तर उठने वाली तीक्ष्ण खुजली से व्याप्त हुए ओष्ठों के पर्यन्त भाग रूपी नदी से निरन्तर राल टपकती थी । जिसमें निरन्तर मल-द्वार से निकली हुई नांव व मल से घृणा उत्पन्न होती थी और नगर की गलियों के अग्नभाग पर पर नीचे गिरने से निकली हुई मूष- (विष्ठा) श्रेणी के कारण जिसका शरीर दुःख से भी देखने के लिए अशक्य था। पुनः वह भोजन करने के लिए राज-भवन में गया 1 अपने सतमंजिले राजभवन में बैठे हुए राजा ने जैसे ही असाध्य रोग से पीड़ित बुद्धि के अधीन हुए और आहार ग्रहण करने के लिए राजमवन की ओर आते हुए उस साधु को देखा तो वह बड़ी उत्कण्ठा के साथ आया और उसे पड़ गाहा | पश्चात्निर्भीक मन व चरित्रवाला राजा कृत्रिम ( बनावटी ) रोग रूपी अग्नि से पराधीन चित्तवाल और बार-बार पृथिवीतल पर गिरते हुए एवं अत्यन्त असाध्य खुजली की उत्पत्ति से जर्जरित शरीरवाले उस मुनि वेषधारी *. अश्वणं म. व या परिपूर्ण । उहायननवादन्यः । १. गमनब्यापारवत्ति । २. व्याधिना-रोगेण । ३. अशोभित । ४. ईदृगुपिवेगं । ५. निष्ठीवन । ६ गरणो गल: 1 ७. अनवरतं । ८. फोड़ा । ९. सौजू शरेयः । १०. कोथस्तु नेवरूग्भेदे मयने भटितेऽपि च । ११. नामिका । १२. उत्पद्यमान । १३. पामा । १४. आच्छादित । १५-१६. ओष्टपर्यन्त एव मारिणी नदी । १७. सवत् । १८. मलद्वारावत् । १९. उत्पन्न । *. बहुवारं । २०. वीथी । २१. उत्पातनिपाता उत्पतननिपतक्रियाः । २२. गूथणि । २३. आहारार्थ । २४. विष्वाणं भोजनं । २५. अध्यषणमपिता, आहार-अथितार्य-ग्रहणाय । २६, आगच्छन्त ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy