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________________ अश्वांसः तपस्तीचं जिनेन्द्राणां नेदं 'संवाद मन्दिरम् । मजोपबाहिर सेत्येवं चेतः स्याद्विचिकित्सा १ ।। १६९ ।। स्वयं हि स घोषोऽयं मन्त्र शक्तः श्रुताश्रयम् । शीलमाश्रयितुं जन्तुस्तवचं वा नियोषितुम् ॥१७॥ स्वतः शुद्धमपि व्योम वक्ष्यम् । यः ॥ १७१ ॥ दर्शनाद्देोषस्य यस्तत्त्वाय जुगुप्सते । स लोहे कालिकालोकान्नूनं मुश्वति काचनम् ।।१७२ ।। स्वस्यान्यस्य 有 कामोऽयं बहिश्छायामनोहरः । अन्तविचार्यमाणः पादोकुम्बरफलोपमः १११७३॥ तोच देहेच याम्यं पश्यतां सत्ताम् । गाय कथं नाम वित्तवृत्तिः प्रवर्तताम् || १७४ | श्रूयतामत्रोपाख्यानम् - मतिभूतानियोषमार्ग त्रयप्रवृत मतिमन्वाकिनी सान्द्रः सौधर्मेन्द्र fिree सकलसुरसेवासम्यक्त्व रत्नगुणान्गीर्वाणगणा तुमहायोदाहरन्निदानी मिन्द्र कच्छवेशेषु मायापुरीत्यपरनाभाव सरस्प सभावसरसमये २३१ [ अब निविचिकित्सा अङ्ग का निरूपण करते हैं-J 'जैन तीर्थंकरों द्वारा कहा हुआ यह उस तम सत्यता का मन्दिर न होने से प्रशंसनीय नहीं है एवं यह तपरूपी वस्तु सदोष है' इस प्रकार के मानसिक अभिप्राय को विचिकित्सा ग्लानि कहते हैं ॥ १६९ ॥ जो विवेकहीन मानव शास्त्र-निरूपित शील ( सदाचार या व्रतों का परिरक्षणरूप आचार ) के पालन में या उसका अभिप्राय समझने में असमर्थ है, इसमें निश्चय से उसी मानव का दोष समझना चाहिए न कि शास्त्र का ॥ १७० ॥ क्योंकि स्वतः शुद्ध आकाश भी जो मलिन देखा जाता है, इसमें आकाश का कोई दोष नहीं है किन्तु देखनेवाले के नेत्रों का ही दोष ( काच कामलादि ) है ॥ १७१ ॥ जी मानव धार्मिक महापुरुषों की शारीरिक मलिनता देखकर उनको रत्नत्रय - ( सम्यग्दर्शन- आदि) धारक आत्मा से घृणा करता है, वह निश्चय से लोहे का कालापन देखकर सुवर्ण को छोड़ देता है । भावार्थजैसे लोहे के कालापन का सुवणं से कोई संबंध नहीं वैसे ही शरीर की मलिनता का आत्मा ने कोई संबंध नहीं है, अतः धार्मिक मुनियों के शरीर की मलिनता देखकर उनकी मात्मा से घृणा नहीं करनी चाहिए ॥ १७२॥ निस्सन्देह अपना या दूसरों का शरीर बाहरी चमड़े की कान्ति से मनोज्ञ प्रतीत होता है परन्तु इसकी भीतरी हालत ( रक्त- आदि) का विचार करने पर तो यह उदम्बर फलों-सरीखा है || १७३ || अतः आप्तोपदेश रूप आगम को प्रमाण मानते हुए और उसके आधार से शरीर का यथार्थ स्वरूप निश्चय करनेवाले सज्जन पुरुषों की मनोवृत्ति धार्मिक पुरुषों की शारीरिक मलिनता देखकर उनसे ग्लानि करनेवाली कैसे हो सकती है ? भावार्थ - आचार्यों ने कहा है कि यह शरीर रस रक्त आदि सात धातुमय होने से मलिन है, परन्तु उसमें सम्यग्दर्शन आदि रत्नश्रय की धारक आत्मा रहती है, अतः मुनि आदि महापुरुषों के शरीर से ग्लानि न करते हुए उनके आत्मिक गुणों में अनुराग करना निर्विचिकित्सा अङ्ग है ।। १७४ ।। निर्विचिकित्सा अङ्ग में प्रसिद्ध उद्दायन राजा की कथा — इस संबंध में एक कथा है, उसे श्रवण कीजिए मति श्रुतव अवधिज्ञानरूपी तीन मार्गों से प्रवृत्त हुई बुद्धिरूपी मन्दाकिनी — गङ्गा से कोमल हुए सौधर्मेन्द्र ने समस्त देवों द्वारा सेवनीय सभा में प्रसद्ध के समय देव समूह का अनुग्रह करने के लिए सम्यग्दर्शन रूपी रत्न के गुणों का निरूपण करते हुए कहा - ' इस समय 'इन्द्रकच्छ' नाम के देश में 'शेरकपुर' नामका नगर है, जिसका दूसरा नाम मायापुरी भी है । उसमें प्रभावती पट्टरानी के विनोद का स्थान 'उद्दायन' नामका १. इदं किंचित् श्लाघ्यं न २. सोपं अदः एतद् वस्तु । ३. 'विचिकित्सना' मु० व ६० लि० 'ख' । ४. अन्वयः - यत् श्रुताश्रयं शीलमात्र यितुं तवयं वा निवोधितुं जन्तुः न शक्तः स स्वस्यैव हि दोषः । ५. शीलार्थं आचरणप्रयोजनं ज्ञातुमसमर्थो वा ६ नभसः । ७ नेत्रस्य संबंधी ८. शास्त्रेऽनादिसिद्धान्ते ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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