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________________ २३० यवास्तिलकचम्पूकाव्ये माप्यलयतन्मनःप्रवेशन लिक्षिता जिप्तदुरभिसंधिना' तत्कम्पापुष्पप्रभावप्रेरितपुरवेषतापावितारतःपुरपुरीपरिजनापकारविधिमा साधु संबोध्य नियमसमाहितहवयचेष्टा विसृष्टा पितृस्वसः सुदेवीनामयायाः परपुः पितुरचाह इत्तस्य होतनामयप्तस्य जिनेन्द्रदत्तस्योववसिप्तसमीपतिनं विरतिधल्यालयमवाप्य तत्र मिवसन्सी यमनियमोपवासपूर्वकविधिभिः अपितेन्द्रिपमनोवृत्तिमवन्ती। तस्मादनदेशनगराजिनेन्द्र वत्तं चिरविरहोत्तालं श्यालं विलोकितुमागतेन प्रियवत्तष्टिना वीक्ष्य विषयाभिलापमोषपश्षकचा सा विहितबहुशुचा पुनः प्रस्याप्य तस्मै जिनेन्द्रदत्तसुतायाहहत्ताय धातु पफान्ता-'तात. सं भवन्तं भगवन्तं भवन्तं पितरं मातरं च तां प्रमाणीकृत्य कृतनिरवषिचतुर्थ व्रतपरिग्रहा । ततः कथमहमियाना विवाहविषये परिकल्पनीया' इति निगौर्य कमलथीसका विरतिविशेषवंशरत्नत्रयकोशमभजत् । हासापितुदचतुर्थेऽस्मिन्यतेऽनन्तमतिः स्थिता । कृत्या तपश्य निकाक्षा कल्पं तावशमावियात् ॥१६८|| इत्युपासकाध्ययने निष्काशितस्थावेक्षणो नामाष्टमः कल्पः । थाले 'सिंह' नाम के राजा के लिए भेंट कर दी। परन्तु जब राजा सिंह भी अनन्तमति के हृदय में स्थान न पा सका तब उसने इसके साथ दुष्ट अभिप्राय का ग्रहण किया ( बलात्कार करना चाहा) तब उस कन्या के पुण्य के प्रभाव से प्रेरित हुए नगर देवता ने उस राजा के अन्तःपुर की रानियों व नगरवासियों तथा राजसेवकों को नाना प्रकार के कष्ट देकर भले प्रकार उसको रक्षा को तब राजा ने अनन्तमति को ब्रह्मचर्य-व्रत में स्थिर चित्तवाली समझकर छोड़ दिया। इसके पश्चात् वहाँ से प्रस्थान करके वह अपने पिता की वहिन 'सुदेवी' नामवाली के पति और 'अहहत्त' के पिता सार्थक नामवाले जिनेन्द्रदत्त के गृह के समीप में स्थित आर्यिकाओं के निवासवाले चैत्यालय में प्राप्त हुई। वहां निवास करती हुई उसने यम, नियम व उपवासपूर्वक विधानों से अपनी इन्द्रियत्ति व मनोवृत्ति की चंचलता क्षोण की। एक दिन अङ्गदेश को 'चम्पा' नगरी से चिरकालोन विरह से व्याकुलित हुए अपने साले जिनेन्द्रदत्त सेठ को देखने के लिए आये हुए इमके पिता 'प्रियदत्त' सेठ ने विषयों की लालसा के त्याग से लक्ष केशोंवाली अपनी पुची अनन्तमति को देखकर विशेय शोक किया। इसके बाद आकर जब उन्होंने अपनी पुत्री अनन्तमति का विवाह जिनेन्द्रदत्त सेठ के पुत्र अहंदत्त कुमार के साथ करने का आरम्भ किया तब पुत्री अनन्तमति ने कहा-'पिताजी ! जब मैंने पूज्य आचार्य (धर्मकोति) और माता-पिताकी साक्षीपूर्वक ब्रह्मचर्य नत की दोक्षा आजन्म ग्रहण की है तब आप इस समय मेरा विवाह-संस्कार कैसे कर सकते हैं ?' ऐसा कहकर उसने कमलश्री नाम की आर्यिका के समीप आकर विशेष आर्यिकाओं के वंश ( कुल व पक्षान्तर में बाप ) को, रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन ज्ञानवारिध हातान रस ) रूस निधि प्राप्त को अर्थात्आयिका की दीक्षा धारण को। इसके विषय में एक दलोक है, उसका अर्थ यह है-- अनस्तमति ने, अपने पिता के हास्यजनक वचनों से आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया। पुनः विषयों की इच्छा का त्याग करती हुई उसने तप करके आयु के अन्त में बारहवं स्वर्ग में प्रविष्ट हुई 1 अर्थात्स्त्रीलिङ्ग-छेदकर बारहवें स्वर्ग में देव' हुई ।। १६८॥ इस प्रकार सोमदेव सूरि के उपासकाध्ययन में निःकांक्षित-तत्व को बतलानेबाला आठवाँ कल्प समाप्त हुआ। १. गृहीतदुष्टाभिप्रायेण । *. समर्पिता। २. यथार्थनाम्नः । ३. आर्यिका। ४, संजायमाना। ५. मैथुनक: ६. अमचर्य ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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