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________________ वास्तिक एका 3 योग्यत्वाथिमा श्रेय बुद्धिरूप वणितस्सर्थवायं मया महाभागो नियंणित प्रति विचिन्त्य प्रदितात्मकप्रसरस्समवनीश्वर गम रसवत्र सून वर्षानन्वन् भीनादोपघातशुचिभिः साधुकार पर 'य्याहारावरशुचिभिवारं रूपचार". निमिषविषय संभूष्णुभिर्मनोभिलषित संपादन जिष्णुभिस्तंस्तः पठित मात्र विधेयविद्योपदेश संदर्भ संभाव्य सुरसेध्यं देशमा विदेश । भवति मात्र इलोक: २३४ बागवानान्नीनोद्दामनः स्वयम् । भजन्निविचिकित्सात्मा स्तुति प्रापत्पुरंदरात् ॥ १७५॥ त्युपासकाध्ययने निविचिकित्सा समुत्साहनो नाम नवमः कल्पः । अन्तर" ""ससंचारं बहिराकारमुन्दरम् । न श्रद्दध्यात् कुतुष्टानां मतं फिराक १२ संनिभम् ॥ १७६ ॥ श्रुतिशाक्य "शिवा नायाः क्षौत्रमांसासत्राश्रयाः । यवन्ते "मख "मोक्षाय विधिरঈतव वयः || १७७ || गर्भाभमटावोयोगपट्टक २० टासमम् । मेलाप्रोक्षणं मुद्रा ४सीदण्डः करण्डकः || १७८ बड़े राज्य की कीर्ति की प्राप्ति से तीन लोक में अपने नाम की ख्याति प्राप्त करने वाले व यात सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से धारणीय बुद्धिवाले इस राजा को जैसा इलाधित - प्रशंसा युक्त किया था वैसा ही मैंने इस महाभाग्यशाली को प्रत्यक्ष देखा। ऐसा सोचकर उसने अपना असली रूप का प्रसार प्रकट कर दिया । एवं उसमें ऐसी महान सेवाशुश्रूषाओं से राजा को विशेष सम्मानित किया, जो कि कल्पवृक्षों से होनेवाली पुष्पवृष्टि व आनन्दभेदी को ध्वनि के आघात से पवित्र हैं, एवं जो इलाधित शब्दों की बेला से पवित्र हैं, और उसने उसे मन्त्र के पाठमात्र से स्वाधीन होनेवालों विद्याओं के उपदेश सहित दिव्य वस्त्रों से सम्मानित किया । अर्थात्उस देव ने उद्दायन राजा के लिए रोहिणी प्रज्ञप्ति आदि विद्याएँ दीं और दिव्य वस्त्र समूह भी प्रदान किये । जो कि ( विद्यारों व वस्त्र ) देवों के स्वर्ग में उत्पन्न हुईं हैं और उसकी मनोकामना पूर्ण करने वाली हैं। बाद में वह स्वर्ग लोकको प्रस्थान कर गया । इस विषय में एक श्लोक है— उसका अभिप्राय यह है- 'बाल, वृद्ध और रोग पीड़ित साधु पुरुषों को स्वयं सेवा-शुश्रूषा करनेवाला और सम्यक्त्व के निर्विचिकित्सा अङ्ग को पालन करनेवाला राजा उद्दायन इन्द्र से प्रशंसित हुआ ॥ १७५ ॥ इस प्रकार उपासकाध्ययन में निर्विचिकित्सा अ में उत्साह वृद्धि करनेवाला नौवाँ कल्प समाप्त हुआ । [ अव अमूढदृष्टि अङ्ग का निरूपण करते हैं। ऐसे मिध्यादृष्टियों (बौद्ध आदि ) के मत में श्रद्धा नहीं करनी चाहिए, जिसके मध्य में दुष्ट अभिप्राय व निन्द्य आचार भरा हुआ है, किन्तु जो बाह्य रूप में मनोज्ञ प्रतीत होता है और जो विपकल- सरीखा कष्टप्रद है || १७६ || दकमत मधु सेवन का विधान करनेवाला है और बौद्धमत मांस भक्षण का विधान करता है एवं शैवमत मद्यपान को स्वीकार करता है। वैदिकमत और शेवमन में यज्ञ ( अश्वमेध आदि ) द्वारा मोक्षनिमित्त विधि की जाती है, उसमें मधु व मांस आदि का प्रयोग है ।। १७७ || दूसरों को धोखा देनेवाला माया१. प्राप्तिः । २. धारणीयबुद्धिः । ३. लावितः । ४ दृष्टः । ५. पवित्रैः । ६. शब्द | ७. देव । ८. उत्पादकैः । ९-१०. मंत्रपाठमाÂण स्वाधीनविद्योपदेशसहित वस्त्र, अर्थात् वस्त्राणि दत्तानि, रोहिणी प्राप्तिपभूतिका: विद्याच दत्ताः । ११. अभिप्राय आचारं । १२. महाकालफल | १२. बेदेोस्वीकारः । १४. बौद्धमते मांसास्नाय: । १५ शेवते मयं । १६. शेषमतें । १७. मखेन यज्ञेन कृत्वा मोक्षानिमित्तं विधिः क्रियते । १८. भर्मि परवंचनकरः आडम्बरः । १९. गोमयलेपनं । २० तृणकटे उपवेशनं । २१. कटीविषयं वन्धनम् । २२. मोक्षर्ण । २३ हस्ते मुद्रिका डाभा वा वाह्री । २४. पाटी आपादे ब्रतिन दण्ड, पक: कुशासनम् ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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