________________
यशस्तिलकचम्पूकाव्मे
वस्यान्सरस्य हेतुर्लोकरञ्जनेनापि भविष्यति मे विष्टिरिव प्रस्थानविघातकारिण्यमृतमतिमहादेवो । दुष्करमसमग्रहसंदोह इव भेयसि मामनुलोमयिष्यति सामन्तनिवहः । प्रार्थिते वस्तुनि पाश इव करिष्यति गतिभ पायोः पतन्निस प्रणयी युवराजः । किमेकविषलता शेषादेव सकलमपि वनमुपहन्तुं युक्तमिति बिसपबन्तःपुरं शिवाकुलमिव विघ्नविष्यस्यभिलषितयात्रासमयम्। तिर्यग्गमिष्यन्ति च पतत्रिण हव पुरवृद्धः कामितस्य प्रतिलोमनाथ । यतः ।
अप्रार्थितोऽपि जायेत पापायाप्रेसरो जनः । धर्मानुष्ठानवेलायां निसर्गात्प्रतिलोमनः ॥ २५ ॥
तमत्र कं नु शायमारथयामि । अथवा रचित एवोपापः । तयाहि-यदीयं विभावरी कुशलेन विभास्पति तथा सर्वायसर सभामण्डपमास्थायाहूय चाम्यावेवमखिलं खानुचरलोकमिवमेकमशिक्षितम ननु भूतपूर्व मनुचितमप्यु पस्थित षल मिस्तरणोपायं निकटकूटकपट मनुष्ठास्यामि । भवति हि मृषोद्यमपि प्रायेण ब्रह्मोद्यकर्मणे यत्रात्मनो हिकापुत्रिक फलविलोपः । मायापि खलु परं निःपसमेवारभते, या न भवति परेषां परमार्थतः प्रतारणकरो ।
४०
महरतिपदापि क्रिया सुकृतमेवासनोति यदि न ममस्तमोबहुलम् । अवसाने ध्वन्यथावृत्तिरपि व्यापारों न करोति कामप्यर्थंशतिम्, यदि न विनेद्यानां जनयति व्यसनानि ।
तथा च प्रवचनम् — वासुपूज्य भगवतो वन्चनामिषेण मतो मिथिलानगरीनाथः पद्मरथो बभूव गणधरदेवः । मातुः कानिचिद्दिनानि बत्तान्तरोऽपि पश्वशतयुषतिरतिमाएः सुकुमारश्च साधयामासाभिमतम् ।
करने में वैसा विघ्न करेगा जैसा चरणों पर पड़ा हुआ जाल गमन करने में विघ्न करता है। 'क्या एक जहरीली लता के दोष से समस्त वन का उच्छेद ( काटना ) उचित है ?' ऐसा सार्थक बिलाप करती हुई मेरी पत्नी -समूह
गाली समूह सी तपोवन के प्रति प्रस्थान करने में विघ्न करेगी। जैसे आड़े आए हुए पक्षी गमन करने में अपशकुन करते हैं वैसे नगर के सम्पत्तिशाली पुरुष तपोवन के प्रति प्रस्थान करने में विरोध करने के लिए आड़े आ जाएँगे, क्योंकि - लोक विना याचना किया हुआ भी पाप-निमित्त अग्रेसर होता है परन्तु पुण्यकर्म करने के अवसर पर वह स्वभाव से प्रतिकूल हो जाता है ||२५||
अतः मैं निस्सन्देह तपोवन के प्रति प्रस्थान करने के लिए कौन-सा उपाय रखूँ ? अथवा मैंने उपाय प्राप्त कर लिया। उसी उपाय को दिखाते हैं-
यदि यह आज की रात्रि निर्विघ्न व्यतीत हो जायगी उस समय में 'सर्वावसर' नामके सभामण्डप में बैठकर अपनी माता चन्द्रमती देवी व समस्त सेवक समूह को बुलाकर ऐसा समोपवर्ती कूटकपट ( मायाचार ) करूँगा, जो कि अद्वितीय, किसीके द्वारा उपदेश नहीं दिया हुआ, पूर्व में अनुभव में नहीं आया हुआ एवं जो अनुचित होनेपर भी समस्त आए हुए विघ्नों को निवारण करनेका उपाय है, क्योंकि वह असत्य वचन भी बहुलता से कल्याण-निमित्त होता है, जिसमें अपनी आत्माका इसलोक व परलोक संबंधी सुख का विनाश नहीं होता । जो मायाचार निश्चय से दूसरों को धोखा देनेवाला नहीं है, वह भी निस्सन्देह उत्कृष्ट पुष्य को ही उत्पन्न करता है । बाह्यरूप में अत्यन्त कठोर भी क्रिया ( आचार – केशलुञ्चन व उपवासादि ) पुण्य को ही उत्पन्न करती है यदि उसमें मन अज्ञान - बहुल न हो । समाप्ति में असत्य व्यापार भी कोई पुण्य - विनाश नहीं करता, • यदि वह शिष्यों को दुःख उत्पन्न नहीं करता ।
उक्त बात के समर्थक सिद्धान्त-वचन हैं - मिथिलानगरी का स्वामी पद्मरथ नामका राजा बारह में तीर्थर श्री वासुपूज्य भगवान् को वन्दना के बहाने से चम्पा नगरी में प्राप्त हुआ। वहीं दीक्षा धारण करके गणधर देव हो गया । इसी प्रकार सुकुमाल स्वामी, जो कि पांच सौ युवतिरूपी रतियों के लिए कामदेव सरीखे