SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ आवास: ३५. भागेन, मनःस्फुरितगिमाविष नितरामाच शेतव्यं चक्षुस्तिमिरपटलेन, संघियन्यविघटनाविवासीय स्पन्दितव्यं वदनकन्दरेन. रतिशयादि समन्ततः पतितव्यं बतवलयेन मोहानिलविजृम्भणादिव धनतरं तरङ्गमयितव्यमपघनेन, सरसत्वयादिव नितान्तमवनमनीयं पृष्ठवंशेन, लावण्यजलधिगलना दिवात्यर्थं प्रकटितव्यं स्मसानलआलेन, आसन्नतरमरणभयादिय प्रकामं व्यङ्गेन । यस्यां पुनर्लक्ष्म्यामयं महानाग्रहो लोकस्य सः देवात्करमुपागतापि इतककणिकेव न भवति स्थिरा, पलमंत्रीय संगच्छमानापि जनयत्यवश्यं काचिद्वियवम्, अपामार्गयवागृरिव लब्बापि न सभ्यते परिणमपितुम्, प्रयत्नपरिपालितापि कुलदेव करोत्युपपतावभिातम् अनुभूयमानापि भविरेव मोहमत्यन्तःकरणम् ग्रहोपरागलेखेव ताप्यसंतापयन्ती न व्यवतिष्ठते साहसरुपस्थितापि राक्षसोव थयति केवलं महापुरुषेषु प्रतिष्ठां प्रत्यवसादयितुम्, दुर्जनेषु क्षणमात्रं सतीभावमुपयाति । तमतिविस्तरेण । अहं तावत्परवशेनैव गलितमोहपाश इवाभुवम् । किंतु सफलजन विदितमप्रियं न मे किमप्यस्ति प्रव्रजतः । पाणिपरिगृहीता भुजङ्गीव सकृदेय मोक्तुमशक्या चेयं राज्यलक्ष्मीः । कष्टश्च खलु महत्यश्वयं देहिनामात्मलाभः, यंत्र थासमपि कर्माचरितुं न लभ्यते स्वातन्त्र्येण । मन्ये च मद्दर्शनावलम्बनजीविता कुलदेवतेव न मामनुमंस्यते तपस्यायामदेवी | नवें व दर्यास मयि संजातनियदे विधास्यन्तेऽशुभकमं परिणामः इव संहत्य मन्त्रिणो मनोषितस्यान्तरायम् इतोऽ है । विशेष निकटवर्ती मरण के भय से ही मानों ---वृद्ध का शरीर अधिक कम्पित होता है । जिस घनादि सम्पत्ति में लोक का महान आदर है वह भाग्योदय से हस्त में प्राप्त होती हुई भी पारद रस को कणिका सरीखी स्थिर नहीं रहती । वह ( लक्ष्मी ) प्राप्त होती हुई भी निश्चय से चुगलखोर की मैत्री - सरीखी कोई भी आपत्ति उत्पन्न कर देती है तथा प्राप्त हुई भी लक्ष्मी अपामार्ग के बीज की तरह पचाने ( भोगने ) की शक्य नहीं होती। वह लक्ष्मी प्रयत्न पूर्वक रक्षा की गई भी व्यभिचारिणी स्त्री-सी उपपति--दूसरे पुरुष – की अभिलापा करती है। जिस प्रकार मद्य भोगी जा रहो भी मन को मूर्छित करती है उसी प्रकार लक्ष्मी भोगी जा रही भी मनको मोहित - अज्ञानी करती है । यह लक्ष्मी नष्ट होती हुई चन्द्रग्रहण व सूर्य ग्रहण की रेखा -सी अवश्य क्लेशित करती है। यह लक्ष्मी राक्षसी-सी साहसों से प्राप्त हुई भी केवल महानुभावों की प्रतिष्ठा (शोभा) को नष्ट करने के लिए उन्हें धोखा देती है । वह लक्ष्मी क्षण भर में दुष्टों की सखी हो जाती है । विशेष विस्तार पूर्वक कथन करना पर्याप्त है । मैं ( यशोधर ) अनुक्रम से पराधीनता से ही मोहजाल को नष्ट करनेवाला सरीखा हुआ हूँ, किन्तु दीक्षा ग्रहण करते हुए मेरे पूर्वा वैराग्य का कारण छोड़कर दूसरा कोई भी सर्वलोक विख्यात वैराग्य का लिए अशक्य कारण नहीं है । हस्त से धारण की हुई सर्पिणी- सरीखी यह राज्यलक्ष्मी एकवार में ही छोड़ने है। महान धनादि ऐश्वर्य में प्राणियों की उत्पत्ति कष्टदायक है। क्योंकि जिसके होने पर बनाढ्य पुरुष कल्याणमेरे दर्शनाधार से कारक आचरण भी स्वाधीनतापूर्वक करने के लिए समर्थ नहीं होता। मैं जानता हूँ जीवित रहनेवाली व कुलदेवता-सी चन्द्रमती महादेवी ( मेरी भाता ) मुझे दीक्षा ग्रहण करने की अनुज्ञा नहीं देगी । जब मुझे इस धुवावस्था में संसार, शरीर व भोगों से वैराग्य उत्पन्न होगा तब मन्त्रीगण एकत्रित होकर मेरे मनोवाच्छित कार्य में वैसे विघ्न करेंगे जैसे पापकर्म के उदय मनोवाञ्छित कार्य में विघ्न करते हैं। जो अमृतमति महादेवी इतने वेराग्य का कारण है, वह अपने ऊपर लोगोंको प्रसन्न करने के लिऐ मेरे तपोवन में गमन करने का निषेध करनेवाली वैसी होगी जैसे सममकरण गगन करने का निषेध करता है । मेरी आज्ञानुसार चलनेवाला नृप-समूह पिशाचवृन्द-सा मोक्षसाधन कार्य में मेरे अनुकूल होगा यह बात असम्भव है । स्वभाव से स्नेह करनेवाला युवराज ( यशोमति कुमार ) चरणों को ग्रहण करता हुआ तपदचरणार्थं प्रस्थान
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy