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________________ चतुर्थ आश्वासः ** तविलम्बम् अम्ब मन्मनोरथानां कल्पलतिके, निशमय ममैकां विज्ञप्तिम् । अयमामुक्तस्तत्र भवरमाः प्रणामा जलिः । निस्वभाव कर्जाको नागवधानं कर्तुमर्हसि । उबिलोक्तिकुलशीलाविगुणबरणे दुरापफलसंपादनचिन्तामणे पुरोहित, सपादपतनं याचितोऽसि । प्रयच्छतः प्रियशिष्याय कम् वीरश्रीविलासकमलाकर सकलविग्वलयप्रसाधनकर सेनापते भव व्यासङ्क्रमपहाय प्रयतचेताः । कीर्तिधावलितरशेषराजनिवास महाहवभरारम्भनियूँक महासाहस सामन्तसमाज, समाकर्णय सम्यगिममुदन्तव्यतिकरम् । राज्यलक्ष्मीरक्षाक्षमप्रतापत्रसर निक्षिलमण्डलेश्वरप्रणामकर्कशंकर धौवारिक, निषीवावधारयितुमेनं वृतान्तम् । एवमन्योऽपि यः कचिन्म• प्रणयी परिजनः स क्षणमेकमनन्यमनाः शृणोतु । अद्य विभातशेषायां निशि स्वप्नममेषमदर्शम् - आत्मनः किलापनीम राज्यभारं यशोमतिकुमार एव निहितवान् । विहाय राजधानीमा श्रमावन्यामिव प्राविक्षम् । उत्सृज्य कनकासनमुपलगहन विष्टवान् । श्रवमत्य राजमन्दिर मद्रिकन्दरमिवाशिश्रियम् । अवधूय वसुधाधिपत्यचिह्नानि तपःश्रीलिङ्गानीव गृहोलवान् । परिहृत्य विषपरसमनुष्ठानमानस इवाभूयम् । विमुथ्य भवादृशं परिजनं मुमुक्षुजर्नरिव संगतोऽस्मि । परित्यव्य विलासिनीजनमरण्यलता रखनमिवोपाप्नुहियम् । अवगणय्य बान्धबंधु परिचितत्वमटमोसत्येष्विव प्रीति गतवान् । एवम. या थे, और जिन्होंने अपनी माता से कुछ दिनों तक दीक्षा ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा की थी और जिन्हें माता द्वारा कुछ दिनों तक दीक्षा ग्रहण में विघ्न बाधाएँ उपस्थित को गई थीं, दोक्षा ग्रहण को सिद्ध किया । उस कारण से मेरे मनोरथों की पूर्ति के लिए कल्प लता सरीखी है माता चन्द्रमती में पूजनीय आपके लिए यह प्रणामाञ्जलि अर्पित करता है । मेरा एक विज्ञापन सुनिए । निर्दोष प्रकृतिशाली व समस्त सन्धि व विग्रह आदि कार्यों के प्रारम्भ में निविघ्न मन्त्र - प्रभावशाली हे मन्त्री मण्डल ! आप भी थोड़ी एकाग्रता धारण के योग्य हैं । विशेष उदयवाएं पवित्र वंश और परस्त्री के प्रति मातृ भगिनीभाव आदि गुणों की पृथिवी (आधार) एवं दुर्लभ अपूर्व लाभों को प्राप्ति करने में चिन्तामणि सरीखे हे पुरोहित ! में चरणों में नमस्कार पूर्वक आप से प्रार्थना करता हूँ कि प्रिय शिष्य मेरा विज्ञापन ध्यान पूर्वक सुनिए । वीर लक्ष्मी को क्रीड़ा करने के लिए कमल-वन सरीखे व समस्त दिशा समूह को वश करनेवाले हे सेनापति | आप चित की अस्थिरता छोड़कर सावधान चित्त-युक्त होवें । कीर्तिरूप सुधा द्वारा समस्त राजमहलों को उज्वल करनेवाले और महासंग्राम भार के प्रारम्भों में महान् अद्भुत कर्मों को वृद्धिंगत करनेवाले हे मेरे अधीनस्य राजसमूह ! प्रत्यक्ष किये हुए इस वृत्तान्त प्रघट्टक को सावधानी पूर्वक श्रवण कीजिए जिसके प्रताप का विस्तार, राज्यलक्ष्मी की रक्षा करने में समर्थ है और जिसका हाथ, समस्त मण्डलेश्वर राजाओं को नस्त्रीभूत करने में विशेष कठिन है, ऐसे हे द्वारपाल 1 तुम मेरी बातको यथार्थं निश्चय करने के लिए बैठी । इसी तरह दूसरा भी मुझसे स्नेह करनेवाला कोई कुटुम्ब वर्ग 'है, वह सब क्षणभर सावधान चित्त होकर सुने - मैंने आज इसी पश्चिम रात्रि में निम्न प्रकार स्वप्न देखा । अर्थात् — मैंने स्वप्न में अपने को निम्नप्रकार देखा मैंने निश्चय से अपना राज्यभार छोड़कर युवराज ( यशोमत कुमार ) में स्थापित करते हुए सरीखा अपने को देखा और इस राजधानी ( उज्जयिनी नगरी ) को छोड़कर तपोवन में प्रविष्ट होता हुआ सा जाना । मैंने सुवर्ण सिंहासन को छोड़कर स्वयं को पाषाण पर्वत पर स्थित हुआ जैसा देखा और राजमहल को अनावृत करके पर्वत गुफा का आश्रय किये हुए सरीखा तथा छत्र चेंबर आदि राजचिह्नों का परित्याग करके पलक्ष्मी के चिह्न (पोछी व कमण्डलु आदि ) ग्रहण करते हुए सरीखा देखा । में विषय स्वाद को छोड़कर क्रिया सरोवर में लौन हुआ-सा हो गया और आप सरीखे कुटुम्बी जनों को छोड़कर मोक्षाभिलाषी महामुनियों के साथ संगत हुआ जैसा हो गया । मैंने स्त्री-समूह को छोड़कर स्वयं को चलताओं के वन का आलिङ्गन करते हुए सरीखा देखा एवं
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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