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________________ ४२ यशस्तिलक चम्पूका म्यभ्यनेकशः संसारसुखविमुखानि मत्पुराकृतपुण्यावसानसूचनोल्लेखानि चतुरं पुरुवाणं समर्थनोचितानि स्वप्नजातान्यद्राक्षम् । अववच तवाहं वदतापि केनचिद्विबोधित इव । सत्यफलाश्च भवन्ति प्रायेण निशावसानेव्ववलोकिताः स्वष्टाः । नापि तामसगुणमयी घोषमयी वा प्रकृतिः येनान्यथापि संभाष्येरम् । न चामीविहामुत्र च विशेषाश्रितं किंचिनिरीक्षितम् । अपि च । श्रुतान्यधीतानि मही प्रसाषिता वलानि बिलानि ययार्थभने । पुत्रोऽप्ययं वमंहरः प्रवर्तते सर्वत्र सम्पूर्ण मनोरथागमः ॥२६॥ विजोऽपि सुखतर्षो न मे मनः प्रायेण प्रत्यवसादयितुमीश्वरः । पतः । सकृद्विज्ञातसारेषु विषये मुहुर्मुहुः । कथं कुर्व लज्जेत जन्तुइदवितचर्वणम् ॥ २७ ॥ न श्भ्रमान्तकसंपर्कात्मुखमन्यद्भवोद्भवम् । तेन सन्तः प्रतार्यन्ते यदि तत्वज्ञता हता ॥ २८॥ वाल्मे विद्यायहणानर्थान् कुर्यात् कामं यौवने, स्थविरे धर्म मोक्षं चेत्यपि नायमेकान्ततोऽनित्यत्वादापुषः योपपदं वा सेवेतेत्यपि श्रुतेः । अपि च । वधु आदि वर्गों में परिचय को छोड़कर अटवी के हरिण आदि प्राणियों में अनुराग को प्राप्त हुआ सरीखा अपने को देखा । इसी प्रकार मैंने दूसरे भी अनेकप्रकार के स्वप्न-समूह देखे, जो कि संसार-सुख छुड़ानेवाले हैं और जिनका उद्देश्य मेरे पूर्वजन्मोपार्जित पुण्य कर्म के विनाश को सूचित करता है एवं जो मोक्ष पुरुषार्थं के समर्थन मैं उचित हैं | जैसे मैंने स्वप्न समूह देखे वैसे जाग गया - मानों - बोलते हुए किसी से जगाया गया हूँ । पश्चिम रात्रि में देखे हुए स्वप्नों का फल प्रायः करके सत्य होता है । मेरी प्रकृति तामसी नहीं है तथा दोषमय भी नहीं है, जिससे मेरे स्वप्न मिथ्याफलवाले संभावना किये जायें। इन स्वप्नों के मध्य में मैंने इस जन्म व भविष्य जन्म को विनाश करनेवाला कुछ नहीं देखा । विशेष यह है मैंने शास्त्र पढ़ लिए। पृथ्वो को अपने अधीन कर ली । याचकों अथवा सेवकों के लिए यथोक्त धन दे दिए और यह यशोमतिकुमार पुत्र भी कवचधारी वीर है, अतः में, समस्त कार्य में अपने मनोरथ को पूर्ण प्राप्ति करनेवाला हो गया हूँ ||२६|| पचेन्द्रियों के स्पर्श आदि विषयों से उत्पन्न हुई सुख-सूष्णा भी प्रायः मेरे मन को भक्षण करने में समर्थ नहीं है। क्योंकि — इन्द्रिय विषयों ( भोगोपभोग पदार्थों) में, जिनको श्रेष्ठता या शक्ति एकवार परीक्षा की गई है, बार-बार खाये हुए को खाता हुआ यह प्राणी किसप्रकार लज्जित नहीं होता ? ||२७|| मैथुन कोडा के अखीर में होनेवाले सुखानुमान को छोड़कर दूसरा कोई भी सांसारिक सुख नहीं है, उस सुख द्वारा यदि विद्वान् पुरुष ठगाए जाते हैं, तो उनका तत्वज्ञान नष्ट ही हैं ||२८|| 'मानव को वाल्य अवस्था में विद्याभ्यास गुणादि कर्तव्य करना चाहिए और जवानी में कामसेवन करना चाहिए एवं वृद्धावस्था में धर्म व मोक्ष पुरुषार्थ का अनुष्ठान करना चाहिए। अथवा अवसर के अनुसार काम आदि सेवन करना चाहिए। यह भी वैदिक वचन है । परन्तु उक्तप्रकार की मान्यता सर्वथा नहीं है, क्योंकि आयुकर्म अस्थिर है। अभिप्राय यह है कि उक्त प्रकार को वैदिक मान्यता आदि उचित नहीं है, क्योंकि जीवन क्षणभङ्गुर है, अतः मृत्यु द्वारा गृहीत केशसरीखा होते हुए धर्मपुरुषार्थं का अनुष्ठान विद्याभ्यास-सा वाल्यावस्था से ही करना चाहिए। तथा च १. समुचयालंकारः । २. आक्षेपाळंकारः । ३. नाविरलंकारः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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