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________________ चतुथं आश्वासः ध्यानानुष्ठानशक्तात्मा पुवा यो न तपस्पति । स जराजरोऽन्येवां तपोविघ्नकरः परम् ॥२९॥ सदहमेतत्स्वप्नदर्शनमशून्यपरामर्शनं कर्तुंमोहे. यदि तभवन्तो न मे भवन्त्युत्सर्गाणाममषावा इव प्रतिबन्योपापाः । प्रत्युपपन्नं चैतत् । पुरा हि युष्माफमेकक्षमाः परिगणनातीतानि परमुखेनाप्ययितात्यहं संपावितवान् । भवद्भिः पुनरोधः किमेकमपि स्वयमभ्यथितं न मे संपावत इति । तथाप्यमौ परमार्थम प्रतिस्थानमाजेन वा तपस्यायो यपि न मामनुमस्यन्ते, मिरस्याप्येतानारहितमनुष्ठास्यामि । को नु खलु विघटितं चेतः स्फटिकवलयमिव मुषामि संपातुमर्हति । निसर्गावस्निग्धे हि मनसि मरुभूम्माभिव वृथा भवन्ति परजनस्य रसानपनश्लेषाः । अन्यत्र कृतनिश्चय हि चेतसि मरगोपवेश इब विकलो भवति निकटवतिनां प्रतिकूलतया ममःसमागमनविनियोगः । स्वभावनिष्ठरं हि मनः शिलापाकलमिव न देवोऽपि भाक्नोति पल्लवयितुम् । अभिनिवेशकर्कशे हि दवपे कुलिश इव न प्रवेश लभन्ते गुणवत्पोऽपि वधूना प्रार्थनाः । देवस्यापि बचः प्रायः पंसि जातामहमहे । अक्षरे वर्षवन्न स्यात् गुणकारि मनापि ॥३०॥ धर्मध्यान व चारित्र के पालन में समर्थ आत्मावाला जो पुरुष जवान होकर तपश्चर्या नहीं करता, वह पुरुष वृद्धावस्था में भग्न शरीर-युक्त होकर तपश्चर्या करता हुआ, केवल दूसरे साधुओं की तपश्चर्या में विघ्न उपस्थित करनेवाला होगा ॥२९|| अत: मैं ( यशोधर ) इस स्वप्न-दर्शन को सफल विचारवाला करने की इच्छा करता हूँ। यदि आप लोग मुझे निषेध करने के उपाय उसप्रकार न हो जिसप्रकार विशेष पहीं हुई विधियो, सामान्य कही हुई विधियों के निषेध करने के उपाय होती हैं। आपके द्वारा यह मेरी प्रार्थना पालन की हुई होगी, क्योंकि जब मैंने पूर्व में आप लोगों में से एक एक की अगणित प्रार्थनाएं दूसरों के संदेश वचन मात्र से भी पालन की हैं तब आप समस्त सज्जन मेरी स्वयं की हुई एक भी प्रार्थना को क्या पालन नहीं करोगे? तथापि यदि आप मेरी प्रार्थना सम्पादन नहीं करेंगे और आप लोग यदि मुझे तपश्चर्या करने की अनुमति नहीं देंगे तो में परमार्थ रूप से अथवा स्वप्न-प्रतीकार के बहाने से इन स्वप्नों का निषेध करके आत्महित कलंगा, अर्थात्-तपोवन के प्रति गमन करूंगा। क्योंकि निश्चय से स्फटिक मणि के कण सरीखे विघटित हुए ( विरक्त हुए ) चित्त को कौन पुरुष निरर्थक भी संधान ( जोड़ना पक्षान्तर में अनुराग-युक्त ) करने के योग्य है। स्वभावतः स्नेह-हीन चित्त में निश्चय से दूसरे लोगों के रसानयन क्लेश वृथा होते हैं । अर्थात्शृङ्गाररस का प्रदर्शन मरुभूमि की तरह नेत्रों के संताप के लिए होता है | भावार्थ-जैसे मभूमि में स्वयं प्यासे होने पर रसानयन क्लेया-दूसरे के हाथ में रस ( जल ) देखकर नेत्रों को क्लेश होते हैं, वैसे वैराग्ययुक्त पुरुष को तपश्चर्या को प्यास होने पर दूसरे मनुष्यों द्वारा शृङ्गाररस का दिखाना नेत्रों के संताप के लिए होता है। दीक्षा-आदि धारण करने का निश्चय किये हुए चित्त को निश्चय से निकटवर्ती पुरुपों को प्रतिकूलता द्वारा वापिस लाने का अधिकार वैसा निष्फल होता है जैसे मरणोपदेश निष्फल होता है। अर्थात्-'तू मरजा' इसप्रकार का उपदेश सुननेवाला क्या कोई मरता है ? अर्थात्-जिसतरह दिया हुआ भरणोपदेश निष्फल होता है उसीतरह वैराग्यशील चित्तको सरागी बनाने का प्रयत्न भी निष्फल होता है। पाषाणखण्ड-सरीखे स्वभाव से कर्कश मन को निस्सन्देह देवता भी उल्लासितः- रामयुक्त करने समर्थ नहीं होता। जैसे वज़ में गुण ( तन्तु) प्रवेश नहीं होता वैसे निश्चय से अभिप्राय से कठिन हृदय में स्त्रियों को याचनाएं गुणकारिणो होती हुई भी प्रवेश ( संक्रमण ) नहीं करतीं। थोड़ा-सा कहता हूं-उस पुरुष में, जिसमें प्रायः करके आग्रह रूप पिशाच उत्पन्न हुआ है, देवता
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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