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________________ पशस्तिलफचम्पूकाध्ये प्ति संकल्प्य अवश्यमिह जन्ममि म मे शयनललमारोहन्ति महिला प्रति घ पालोख्य लोकालोकाचल दव 'प्रकाशाषकाराप्तिमन्परितमनःप्रसरे विवाभोगभगुरे नभसीष निमेषोन्मेषाकुलितनयनमयले स्यापप्रयोषयतिरिकामपरामेव कांचिवसालामिव संकीर्णरसासरालां निद्रावधामनुभवति मयि सति । बहो धर्मावलोक, मदभिमतसाधुकारवानेव ध्वनितं शलेन, मत्प्रव्रजनमङ्गलरयणेव समुण्यलितं संगीतकनिनादेन, मत्कार्पपरिच्छेदेनेव स्फुटितं पूर्वसिग्मागेन, मवाज्याभिलाषेणेव विरलीमूतं तारकमिफरेण, मन्मनसिजविलासेनेव विच्छायितमिन्दुबिम्बेन, म राप्यमनमेव विकसितमरविन्धवृन्देन, मविषयसुखतव विघटितं तमःपटलेम, मन्मोहपाशेनेव विलितं सध्यारागेण, मवपुषेव लोकलोचनगोचरसामुपगतमरुणकिरणेन, मड्रपनविन्यासरिय पर्याकुलितं नग. निगमगोपुरसरित्भदेवर्जनसमाजेन । तपश्यहमनवाप्तनिशानिनोऽपि वातायनविपरलब्धप्रसरेण रविणा प्रायनेव शररपत्ि के भी वचन उसतरह थोड़े भी उपकारक नहीं होते जिसतरह ऊपर भूमि में मेघों की दृष्टि जरा-सी भी उपकारक नहीं होती ||३०|| प्रसङ्गानुवाद हे भारिदत्त महाराज ! मैं पूर्व में क्या-क्या करके 'अखिलजनाबसर' नामके सभामण्डप में प्राप्त हुआ? पूर्वोक्त विषय को मन में धारण करके और 'निश्चय से इस भव में मेरी शय्या पर स्त्रियाँ आरोग नहीं कर सकतीं' इसप्रकार पूर्व में विचार करके में उक्त सभामण्डप में प्राप्त हुआ। है राजन् ! क्या होनेपर मैं उक्त सभामण्डप में प्राप्त हुआ ? जब मैं, जिसको चित्तप्रवृत्ति देसी बसी प्रकाश व अन्धकार के आचरण से मत्थरित ( व्याप्त या भरी हुई ) हुई है, अर्थात् जो चैराग्य व उद्वेग दोनों से व्याप्त है, जैसे उदयाचल व अस्ताचल प्रकाश व अन्धकार दोनों से युक होते हैं। जिसके नेत्रप्रान्त निमेष ( नेत्रों का मौंचना) व उन्मेष ( नेत्रों का खोलना) से संयुक्त हैं, अतः जो बिजली के विस्तार से बिनाशशील आकाश-सरीखा था | अर्थात्-जिसप्रकार बिजली मेघों के मध्य में प्रवेश करती हुई अन्धकार उत्पन्न करती है और प्रकट होती हुई प्रकाश करती है उसीप्रकार. मेरे नेत्रप्रान्तों में निमेष व उन्मेष उत्पन्न हुए। में कैसी निद्रावस्था का अनुभव कर रहा था ? जो शयन व जागरण-युक्त थी । अतः जो अपूर्व, अनिर्वचनीय तथा संमित्र रसों से अधिक हुई रसाला ( शकर व मसाला पड़ा हुआ दही-शिखरन ) सरीखी थी। अर्थात्-जिसप्रकार रसाला संमित्र ( मिले हुए ) रसों से व्यास होती है। धर्म का अनुसन्धान करनेवाले हे मारिदत्त महाराज ] इसके बाद शङ्ख की स्वनि हुई, उससमय ऐसा मालुम पड़ता पा–मानों-मेरे मनचाहे दीक्षाग्रहण का समर्थक माधुकारवचन ही है । हे राजन् ! उससमय गीत, नृत्य व वादित्रों को ध्वनि प्रकट हुई, जो—मानों-मेरे दीक्षाग्रहण की माङ्गलिक ध्वनि ही है। पूर्वदिशा का प्रदेश विकसित हुआ, जो मानों-मेरी दीक्षा ग्रहण का निश्चय ही है । उससमय ताराओं की श्रेणी मेरी राज्याभिलाषा-सी विरलीभूत हुई। उस समय चन्द्रमण्डल मेरे कामभोग-जेसा कान्ति-हीन हो गया। हे राजन । उस समय कमल-समूह वैसा विकसित हुआ जैसे मेरा वैराग्य, चित्त से विकसित-उल्लासित हुआ। हे राजन् ! उससमय अन्धकार-पटल मेरी विषय सुख की अभिलाषा-सरीखा नष्ट हुआ । उससमय सायंकालीन संध्या की लाली मेरे मोहजाल-सरीखी नष्ट हुई 1 हे मारिदत्त महाराज | उससमय सूर्य की किरणें मेरे शरीर-नी लोगों को दृष्टिगोचर हुई । हे राजन् ! जनसमाज ( लोक-समूह ), पर्वत-मार्ग, नगरद्वार व नदी स्थानों से आकर उसप्रकार व्याप्त हुआ जिसप्रकार जनसमाज ( सेवक-समूह ) मेरी महल-रचनाओं में व्याप्त होता है। हे राजन् ! इसके बाद में, रात्रि में निद्रा को प्राप्त न करता हुआ मो गवाक्षजालों (झरोखों) से प्रविष्ट होने
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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