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________________ प चतुर्थ आश्वासः प्रबोधितः । सिन्धुर इव शय्यामुत्सृष्य, उत्तानपेविनो हि नरस्य सुखसाध्यमपि कार्यमुदके विशीर्ण चूर्णमित्र न भवति यनपातरपि कर्तव्यं प्रतिविधेयमित्यवधाय, तस्याः सुष्कर्मणी महादेव्याः शारीरसंगमादिव विहितोषस्पमजनो नित्यं च गोसर्गमामयभविनमुपामयिघिर अपामोखावे नि मनसि न शस्नु परोपनीतः परिग्रहासङ्गो भवति कर्मपरिष्वङ्गायेत्यनुष्याय महोतोगमनीयमङ्गलदुकूलः, समाचर्य तपश्चर्यानुरागेणेव हरिरोहणेनाङ्गरागम्, आवृत्त्य हितोपदेशमिय कर्णाभरणम्, 'अहो गुणवतां वर हार, खरं सुरतबिनोदेषु सेवितोऽसि । तदस्य प्रायनः सर्व क्षम्यताम्' इत्यनुनयेनेव कण्ठे गृहोत्या मुक्ताफलभूषणानि, ईषत्प्रागभारश्रीपरिणयोत्कण्ठयेष निधाय करे कङ्गालफारम्, मामनि मम तपस्पायाः कोऽप्यन्तराय इति सिद्धशेषामिय शिरसि विनिवेश्म कुसुमानि, हस्ते कृत्य वेतिकर्तव्यतासारमिव ताम्बूलमखिलजनाबसरं सभामण्डपमुपागतोऽस्मि । मिलिते यथाभागमस्थिते च सबंत्मिन्ननुनौविलोके प्रवृत्तं च पुस्तकषाचनके चन्द्रमतिम्बादेवों प्रति मूल प्रहेतुमिच्छया यावन्मनोरथसारथेः मन्त्रिणो मुखमवलोकयामि, तावत्स्वयमेव मय्येकपुत्रे परमपरसततया रात्रिकृतमन्तरं वर्षामिव गणयन्तीमतियातयामत्रयोभिराप्तपुरुषरधिष्ठिता वाले सूर्य द्वारा उसप्रकार कर-स्पर्श { किरणों के स्पर्श व पक्षान्तर में हस्तस्पर्ण) से जगाया गया जिसप्रकार स्नेही पुरुष द्वारा कर स्पर्श से मित्र जगाया जाता है। फिर हाथी-सरीखे मैंने शय्या ( गलन) को छोड़कर निम्नप्रकार भलीभांति विचार किया। निश्चय से अस्थिर चित्तवाले पुरुष का विना प्रयत्न सिद्ध होने योग्य कार्य, पानी में फेंके हुए चने-सरीखा सेकड़ों प्रयत्नों से भी चिकित्सा करने योग्य नहीं होता । अभिप्राय यह है कि उक्त नैतिक सिद्धान्त को स्मरण करते हा मैंने उक्त घटना किसी के सामने प्रकट नहीं की। इसके बाद हे मारिदत्त महाराज ! उस दुराचारिणी महादेवी ( अमृतमति ) के अस्पृश्य गरीर के स्पर्श से ही मानों-- प्रातःकालीन स्नान करनेवाले मैंने प्रभातकालीन उपासना विधि पूर्ण की । 'मोह-बन्ध से रहित चित्त में दूसरे पुरुष द्वारा समीप में लाए हुए वस्त्रादि-परिग्रह का स्वीकार करना, निश्चय से कर्मबन्ध के निमित्त नहीं होता' ऐसा चिन्तवन करके मैंने धुले हुए वस्त्र का धोती जोड़ा व माङ्गलिक दुपट्टा धारण किया। पश्चात् मैंने गोशीर्ष चन्दन द्रव से विलेपन किया, जो-मानों-तपश्चर्या करने में उत्पन्न हुभा अकृत्रिम स्नेह ही है, फिर मैंने हितोपदेश-सरोखे दोनों कर्ण-कुण्डल धारण किए। 'हे गणवानों में श्रेष्ठ हार ! तुम संभोग-क्रीड़ा में विशेष रूप से खेदखिन्न किये गा हो, अतः इस स्नेही का समस्त अपराध क्षमा करो' इसप्रकार अनुनय से ही मानों-मैने मोतियों का हार कण्ट में वारण किया । थोड़ी-सी पूर्व की राज्य पालन रूपी भार को लक्ष्मो के विवाह की उत्कण्ठा से ही मानों-मैंने हस्ताभूषण ( कङ्कण-अलङ्कार ) हस्त में धारण किए। फिर मैंने पृष्प मस्तक पर धारण किए, जो ऐसे प्रतीत होते थे-मानों-मेरी तपश्चर्या में कोई विघ्न न होवे' इसकारण से सिद्धचक-पूजा गंबंधी पुष्पमाला ही है। और मैंने ताम्बल हस्त में ग्रहण किया, जो-मानों-मेरी दीक्षाग्रहण का निश्चय ही है। उपसंहार-तदनन्तर मैं 'अखिल जनावसर' नाम के सभामण्डप में प्राप्त हुआ। हे राजन् ! जब समस्त सेवकजन एकत्रित हो चुका था व यथास्थान पर स्थिति कर चुका था एवं शास्त्र वाचनेबाला ( पुरोहित ) प्रवृत्त हो चुका था। इसीप्रकार जब तक में चन्द्रमति माता के प्रति लेख भेजने की इच्छा से 'मनोरथ सारथि' नाम के मन्त्री का मुख देख रहा था तब तक अत्यन्त उत्कण्ठा पूर्वक स्वयं आती हुई ऐसी चन्द्रमति माता को मैंने देखा । जो, मुझ एकलौते पुत्र में उत्कृष्ट स्नेह के कारण रात्रिसंबंधी बिरह को सौवार्ष-समान जान रही थी। जो अत्यन्त वृद्ध उम्रवाले मन्त्री-आदि हितेपी पुरुषों से अधिष्ठित्त थी। १. 'हरितरोहिणेन' इति इ. लि. (क) प्रती पाठः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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