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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये मुस्सुकोत्सुकमागच्छन्तीममरसरितमिर हंसकुलपरिवसापुत्फुल्लसिलतरोजवनविहारिणीमिव सरस्वतीमखिसगुणानुगतामिव मपितुः कीर्तिमनेककक्षान्तरविनियुक्तविनतमहासामन्सारुणमणिमौलिमनखोन्मुलरामिरजितोपसंख्यानां संध्यारागोत. रोयवसनामुदयमानचन्द्राकृतिमियापक्ष्याम्, शिपयलं च । पावसानुम- ममोपम्मिाजलः सकल्लोल: सिन्धरिय पुनस्तचरणनसकरोत्सार्यमाणोसंसकुमुमसौरमासक्तभृङ्गाजितोत्तमाङ्गः पातासमुलं स भुजङ्गमालो दिवं स देवाधिपतिर्यथा च । मग्मोवनेनापि तथा त्वमेनामावन्द्रतारं वसुषां प्रशाषि ॥३१॥ इति विहिताशीवोच्चारः शिरःसमानाणपरिकल्पितमालकालोचितोपचारः सुखशयनसंकथाभिमहर्मुहुर्मामालापयन्तीमपितहस्लावलम्मनः पुरः परिसरन्नमृतमरीचिमूर्त्यनुगतस्तबालोक इव तं सभामण्डपमुपनीय महासिंहासनपोठिकरयामुपावौविशम्, उपाविशं च तवावेशान्तिजासने। प्रवृत्तासु च तासु तासु किंवदन्तीषु वाचकः संसारस्वल्पनिरूपणप्रस्ता. पायातभिवमध्यगोष्ट । परेव पन्या वनिताजनानां यस्याः समालिङ्गनभाजि सि । अन्याङ्गनायीक्षणविनमाणो न जातु जायेत समागमोः ।।३।। जो उसप्रकार इसकुल ( गुरुजनों या निर्दोष पुरुष-समूह ) से वेष्टित थी जिसप्रकार गङ्गानदी हंसश्रेणी-से वेष्टित होती है। जो उसप्रकार विकसित हए. उज्वल कमलवनों में विहार करनेवाली थी जिसप्रकार सरस्वती विकसित हुए उज्वल कमल खण्डों में विहार करती है। जो मेरे पिला यशोघमहाराज की कीतिसरीखी सर्वगुण सम्पन्न थी। जिसकी साड़ी बहुत से गृह प्रकोष्ठकों में नियुक्त हुए नम्रोभूत महान् सेवक राजाओं के अरुण ( लाल ) मणियों से व्या ( जड़ित ) मुकुटों की किरणोन्मुख श्रेणी द्वारा रञ्जित की गई है। जिसका दुपट्टा, संध्याकालीन लालिमा-सरीखा है और जिसकी आकृति उदित हुए चन्द्र की आकृति-जैसी थी। फिर मैं उसके सन्मुख गया और मैंने उस सभामण्डप में उसे लाकर महान सिंहासन पीठ पर बैठाया एवं मैं भी उसकी ( माता की आज्ञा से अपने सिंहासन पर बैठा । हे राजन् ! मैं उससमय ऐसे समुद्र-सरीखा था, जिसके जल उदयाचल के शिखर पर संचार करती हुई चन्द्र प्रतिमा के उदय से वृद्धिमत हो रहे थे और जो विशाल तरङ्गों से व्याप्त था । जिसने (मुझ घश्योधर ने) ऐसा मस्तक स्वीकार किया था, जिसपर उस चन्द्रमती माता के चरणनखों की किरणों से तिरस्कार किये जा रहे मुकुट के पुष्पों की सुगन्धि में लम्पट हुए भौरे वर्तमान थे। एवं जिसे माता ने निम्नप्रकार आशीर्वाद का उच्चारण किया था। हे पुत्र ! 'जैसे वह जगत्प्रसिद्ध शेषनाग पाताल-लोक का प्रतिपालन करता है एवं जैसे वह देवेन्द्र स्वर्ग का शासन करता है वैसे हो तुम मेरी आयु से भी (विशेष समय तक ) चन्द्र व ताराओं पर्यन्त इस पृथिवीं का शासन कारों' ।।३।। एवं जिसका मस्तक-सूघने से वाल्यकालोचित व्यवहार किया गया है । हे राजन् ! मैंने केसी मेरी माता को सिंहासन पर वैठाया? जो सुखपूर्वक निद्रा को कथाओं से मुझ से बार-बार एकान्त में भाषण कर रही थी । हे राजन् ! हस्तावलम्वन देनेवाला व माता के आगे गमन करता हुआ मैं चन्द्र-मूति से अनुगत चन्द्रोद्योत-सरीखा था। हे राजन ! जब वे वे जगप्रसिद्ध किंवदन्तियाँ-प्रवृत्त हो रही थी तब कथावाचक विद्वान ने संसार स्वभाव के कथनावसर पर प्राप्त हुए निम्न प्रकार सुभाषित श्लोक पढ़े स्त्रीजनों में वृद्धावस्था हो पुण्यवती है, क्योंकि जिस वृद्धावस्था रूपी स्त्री का आलिङ्गन करने. वाले मानव में । वृद्ध पुरुष में) परस्त्रियों के देखने की शोभा-प्राप्तिरूपी लक्ष्मी कभी भी उत्पन्न नहीं होती ॥३२॥ उस कारण से हे आत्मन् ! जब तक वृद्धावस्था, शारीरिक शक्ति को नष्ट नहीं करती एवं इन्द्रिय-समूह में अन्धकार का विस्तार नहीं करती तब तक आप इस समय उस अनिर्वचनीय कर्त्तव्य को १. उपमालंकारः । २. अप्रस्तुतप्रशंसालंकारः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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