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________________ चतुर्थ आश्वासः ततश्च । पावजरा जरपसे न शरीरशक्ति यावत्तमश्च न तमोति हषीकवर्गे। सावत्यमाघर विधार्य तवन किंचिज्जन्माकुरा पुनरयं रमते न पत्र ॥ ३३ ॥ त्वं मन्दिरविणवारतन नहायेस्तृष्णातमीभिरनुग्धिभिरस्तधुद्धिः। पिलधनात्यहनिशमिमं न तु चित्त सि इण्यं यमस्य निपतनसमकाण एव ॥ ३४ ॥ राजा-(स्वगतम् ।) साघु भो वाचक, माधु। पतः, कथमिव त्वमा मच्चेसःप्रविष्ट इव वर्षे । पुनरपि वाचको मामसीच संसारसुखासनायासु कथासु पसारवान पतपय को नाम न अति जनः कुशलः स्वस्य क्रियेत वशवती। स्त्रीषु सलेष्विव विधिपि मूढः खलु वपतोपाये ॥ ३५॥ हतीव च। राजा-(सविस्मयः। स्वगतम् ।) अहो रात्रिप्रवृत्तवृत्तान्तदिन इवास्याच सरस्वती प्रेरपति दयांसि । बाढमानन्वितश्यामनेन । न स्वामिनसावः सेवकेषु प्रसिद्धविधतामणिरिव फलमसंपाय विश्राम्पतीति । (प्रकाशम् ।) अहो असुवर्ष, वितीयंतामस्मं सुभाषितवर्षाय पारितोषिकम् । वसुवर्ष:- यथाज्ञापयति देव इति । तथा कूतवति वसुवर्षे माता-(स्वगतम् ।) अहो, कुतोऽध मे पुत्रल्प भवभोगनिभर्सनपरागु कामिनीजनसंभावनभगुरारम्मनिर्भरासुर गोष्ठीविदं परं मनः । कि नु खल न महादेवीगेहं विचार करके उसका आचरण करो, जिस कर्तव्य के फरने पर यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला संसाररूपी अङ्कुर ( संसार प्रादुर्भाव ) फिर से क्रीड़ा नहीं करता' ||३३।। हे आत्मन् ! तुम पापानव को उत्पन्न करनेवाले व महल, धन, कलत्र व पुत्रादि को आकाङ्क्षा रूपी अन्धकारों द्वारा नष्ट बुद्धिवाले होते हुए निरन्तर क्लेशित हो रहे हो। हे चित्त ! तुम विना अवसर के गिरनेवाले यमराज के प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले मरणलक्षण-वाले दण्ड को नहीं जानते हो ॥३४|| उक्त सुभाषित शत्रण कर यशोधर महाराज अपने मन में निम्नप्रकार चिन्तवन करते हैं-हे सुभाषित वाचनेवाले ! तुमने विशेष प्रशस्त निरूपण किया। क्योंकि आज तुम मेरे मन में प्रविष्ट हए सरीखे स्पष्ट बोलते हो। हे मारिदत्त महाराज ! कथावाचक विद्वान् ने मुझे संसार-सुख से विमुख करनेवाली कयाओं में विशेष रूप से ध्यान देनेवाले देखकर फिर से निम्नप्रकार सुभाषित श्लोक पढ़ाविद्वानों से संसार में कौन पुरुष अपने वशवर्ती नहीं किया जाता? परन्तु दुष्टों या चुगलखोरों की तरह स्थियों के वशीकरण के उपाय में विधि भी मढ़ है । अर्थात्-वशीभूत करना नहीं जानता ॥३५॥ यशोधर महाराज आश्चर्यान्वित होते हुए अपने मन में निम्न प्रकार चिन्तवन करते हैं—आश्चर्य है कि आज दिन रात्रि में उत्पन्न हुए वृत्तान्त को जाननेवाले सरीखी इस कथावाचक की सरस्वती ( वाग्देवता ) बचनों को प्रेरित कर रही है। इसने मुझे विशेष आनन्दित किया । सेवकों में प्रसिद्धि प्राप्त किया हआ स्वामी का प्रसाद (प्रसन्नता) चिन्तामणि-सरीखा कुछ लाभ उत्पन्न किये विना विधाम नहीं लेता । इसप्रकार विचार कर यशोधर महाराज ने स्पष्ट कहा है 'वसुवर्ष' नामके खजानची ! तुम सुभाषित की वृष्टि करनेवाले इस कथावाचक के लिए पारितोषिक दौ। वसुवर्ष नामका कोषाध्यक्ष-स्वामी की जैसी आज्ञा है। जब उक्त कोपाध्यक्ष ने उस कथावाचक विद्वान् के लिए पारितोषिक वितरण कर दिया तब चन्द्रमती माता अपने मन में निम्न प्रकार विचार करती है-'आश्चर्य है, आज के दिन ऐसी वार्ताओं में, जो सांसारिक भोगों का तिरस्कार करने में तत्पर हैं, एवं १. रूपकालंकारः। २. रूपकालंकारः। ३. रूपकोपमासकारः।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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