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________________ ८४ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये भन्मुखेनेवमाह-पबुत देवः किसाथ दुःस्वप्नोपशमनार्थ भगवत्याः कात्यायन्याः पिष्टकुमकुम यसिमुपहर्तुमावत इति कर्णपरम्परया श्रुतम्, तद्यवि सत्यं तवास्तामसो ताम्रचूजस्तात् । महमेवात्मना परिकल्पिततदुपहारवर्मना परितोषयामि भगवतीम् । प्रशाम्यस्तु देवस्य सर्वेऽपि प्रत्यूहव्यूहाः । प्रवर्षता च देवस्येदमाचन्द्रार्कमसमधीप्राज्यं राज्यम् । न च मया विना भवति रेवस्य कोइम्यूनः प्रवेशः । मद्विधानां हि देवाय फिकरीणामतीय सुलभस्वात् । नीतिरपि तथास्ति 'आग्मानं सततं रक्षेद्दाररपि घनैरपि ।' इति । अप ममवविध प्रेषणाबरोध देवो न करोति करुणां तवा मिथुनवरस्य पक्षिणश्चयाकोव देवस्याहं सहपर्यत एव रात्री षियुक्तासि, गरमः कमलिनीवात एष जठरतासि, जलनिवलेवात एव घपलासि. मभसः शशिप्तिमेवातएव सकलकासि, विपिन शनायेवाप्त एवान्योपभोग्यासि, कुलशेलस्य मेखलेवात एष क्षुब्राधिष्ठताप्ति, तपनस्य प्रभवात एव संतापिकासि, पूर विशेष मलिनता से दुषित कान्ति-युक्त होता है। इस प्रकार के विचार से जिसका मन आश्चर्यान्वित हुआ है और जिससे आने का प्रयन ( आप किस प्रयोजन' से आए हैं ?) किया गया है, मुश्श से निम्न प्रकार विज्ञापन किया हे राजन् ! अमृतमति महादेवो मेरे मुख से निम्न प्रकार कहती है-'जो कि राजा सा निश्चय से आज दिन दुष्ट स्वप्न की शान्ति के लिए परमेश्वरी कात्यायनी कुल देवता की आटे के मुर्गे से वलि ( पूजा) देने के लिए आदरयुक्त है। यह बात मैंने कर्ण-परम्परा से सुनी है | यदि वह बलिदान सत्य है तो यह आटे का मुर्गा तब तक एक और रहे, मैं ही स्वयं अपने आप किये हुए उसके पूजा-मार्ग से परमेश्वरी चण्डिका को प्रसन्न करतो हूँ। ऐसा करने पर मेरे स्वामी के समस्त विघ्नसमूह शान्त हो जायगे। मेरे स्वामी का अनोखी , लक्ष्मी से प्रचुरता-प्राप्त हुआ राज्य चन्द्र सूर्य पर्यन्त वृद्धिंगत होवे | मेरे प्राणवल्लभ को कोई भी स्थान मेरे बिना न्यून नहीं है, क्योंकि निश्चय से मुझ सरीखी दासियाँ मेरे स्वामी को विशेष सुलभ हैं। नीतिशास्त्र का मार्ग भी वैसा है-'मनुष्य को स्त्रियों से व धनों से अपनी रक्षा निरन्तर करनी चाहिए। यदि मेरे इस प्रकार के बलिविधान लक्षणवाले कार्यकारण के योग्य कर्तव्य में मेरे स्वामी दया नहीं करते। अर्थात्-मेरा मरण नहीं चाहते हैं तो मैं मेरे प्राणवल्लम की वैसी सहचरी होऊँगी जैसी चकवी, चकवा पक्षी की सहचरी होती है. उक्त बात को सुनकर ययोधर महाराज चिन्तवन करते हैं, 'इसी कारण तू रात्रि में वियुक्त ( वियोगप्राप्त ) हुई है । अर्थात्-जैसे चक्रवी रात्रि में चकवा से वियुक्त रहती है वैसे तू भी उस मूर्य कुबड़े में अनुरक्त होने के कारण मुझसे रात्रि में वियुक्त रही। मैं मेरे स्वामी को बैसी सहचरो होतो हूँ जैसे कमलिनी तालाब की सहचरी होती है। उक्त बात को सुनकर यशोधर महाराज मन में विचार करते हैं इसी कारण तू वैसी जदरत ( उस मुर्ख कुबड़े में अनुरक्त ) हैं जैसे कमलिनी जड़रत ( इकार लकार का इस्पालङ्कार में अभेद होने के कारण जलरत-पानी में लीन ) होती है। मैं अपने स्वामी को वैसी सहचरी होती हैं जैसे समुद्र की लहर उसकी सहचरी होती है, यशोधर सोचता है, इसी कारण न समुद्र-लहर-सी चञ्चल है। मैं आपकी वैसी सहचरी होऊँगी जैसे चन्द्रमूर्ति आकाश की सहचरी होती है । गशीधर सोचता है कि इसी कारण तू वैसी कलङ्क-सहित ( व्यभिचार-पित ) है जैसे चन्द्रमूर्ति कलङ्घ-सहित ( श्यामलाञ्चन से व्याप्त) होती है। मैं आपकी वृक्ष की छाया-सरीखी सहचरी होऊँगी, यशोधर सोचता है कि इसी कारण तु छाया-सरीखी अन्य-उपभोग्या ( जार द्वारा भोगने योग्य व पक्षान्तर में दूसरे पुरुषों द्वारा सेवन करने योग्य ) है। मैं आपकी कुलाचल को तटो-सी सहचरी होऊंगी,
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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