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________________ चतुर्थ आश्वासः रक्तभावं समस्तानां प्रयोदेति यः पुमान् । आविस्यवस कि न स्यात्पावाकान्सजगत्त्रयः 11 १८४ ।। बहिर्मुडुलंधूल्यानः पूर्व य: स्यात्प्ररोहवत् । किमसी न भिनत्येव प्राप्य कालं महीभृतः ॥ १८५ ।। शूरोऽपि सत्ययुक्तोऽपि नौति त्ति न यो नरः । तत्र संनिहिता नित्यमापदः शरभोपमे ।। १८६ ।। अपि च । पूर्तेषु मायाविषु उर्जनेषु स्वार्थकनिष्ठेषु बिमानितेषु । वर्तेत यः साधुतया स लोके प्रतार्यते मुग्धतिर्न केन ।। १८७ ॥ इति च विमृष्य, पाठप्रतिशठन्यायेन किमपि निःशलाके शिक्षायित्वा कुमारवयस्येनालकमानेनापिष्टितं गधिष्ठिरममात्य प्रहितपती । स तथवागत्य प्रविश्य प निवितावसरो मामुन्मूलितमगमिवातोव परिप्लानम्, आलिण्यपरामृष्टं चित्रमिव मलिनायम्, अग्निङ्कितं रत्नमिव नष्टतेजस, उत्पादितपक्षं लायमिव गलितप्रभावमवलोषप 'महान्सल्वस्य महोपतेनंवग्रहस्येव गजस्य दौर्मनस्याभिनिवेशः । कुतोऽन्यथाधवाय नीलिकोपवेपितदेहस्निपणाप्रवाह इव नितरां मलीमसम्यविः समपादि' इति परामर्शविस्मितान्तरमः कृतागमनपर्मतुपोगश्चषं मां व्यजितपत्-वेव, देवी चाहिए' ।।१८।। जो पुरुष समस्त प्राणियों में रक्तभाव ( अनुराग ) प्रदर्शित करके उदित होता है, वह, क्या वैसा' पादाक्रान्तजगत्त्रय-चरणों द्वारा तीन लोक को व्याप्त करनेवाला ( तीन लोक का स्वामी ) नहीं होता? जैसे सूर्य, पूर्व में रक्तभाव ( अरुणता-लालिमा | प्रदर्शित करके उदित होता हुआ बाद में पादाकान्त जगस्त्रय (किरणों द्वारा तीन लोक को व्याप्त करनेवाला) होता है ॥१८४|| जो पुरुप पीपल के अङ्कर सरीखा पूर्व में बाह्य में मृदु । कोमल ) होता हुआ लधु रूप से उत्पत्ति-युक्त होता है, वह समय पाकर क्या वैसा महीभृतों (राजाओं) को विदीर्ण नहीं करता ? जैसे पीपल का अङ्कर समय पाकर महीभूतों ( पर्वतों) को विदीर्ण करता है। ॥१८५|| जो पुरुष बहादुर व शक्तिशाली होता हुआ भी नीतिशास्त्र को नहीं जानता, अष्टापद-सरोखे उस पुरुष के पास सदा आपत्तियाँ ( मृत्युएँ ) निकटवर्ती होती हैं। अर्थात्-जिसप्रकार अष्टापद मेघ की गर्जना से ही मर जाता है" ।।१८६॥ तथा जो पुरुष, घोखेबाजों, कपटियों, शत्रुओं, स्वार्थ-साधन में तत्पर रहनेवालों एवं मानभङ्ग में प्राप्त कराये गए पुरुषों के साथ हितरूप से प्रवृत्ति करता है, वह विवेकहीन पुरुष शंसार में किस पुरुष द्वारा नहीं ठगाया जाता ? ॥१८७।। हे मारिदत्त महाराज 1 उस अमृतमति देवी ने उक्त विचार करने के बाद शठ-प्रतिशठ न्याय ( तोते के पंखों का लुञ्चन व स्त्री के शिर का मुडना रूप प्रकार ) से कुछ भी ( सत्य-असत्य ) एकान्त में शिक्षा देकर 'अलकभज्जन' नाम के कुमारकाल के मित्र से युक्त 'गविष्ठिर' नाम का अपना मन्त्री मेरे पास भेजा। उसने उसी तरह से आकर द्वारपाल द्वारा सूचित अवसर-बाला होकर मेरे पतिलक भवन बिलास' नाम के महल में प्रविष्ट होकर मुझे निम्न प्रकार का देखा । जैसे उखाड़ा हुआ वृक्ष कान्तिहीन होता है वैसे मैं भी विशेष कान्तिहीन था । जैसे लिखकर मिटाया हुआ चित्र मलिन कान्ति-वाला होता है वैसे मैं भी मलिन कान्ति-युक्त था। जिसप्रकार अग्नि से व्याप्त हुआ माणिक्य कान्ति-हीन होता है उसी प्रकार में भी कान्ति-होन था और जिस तरह लौंचे हुए पंखोवाला गरुड पक्षी नष्ट हुए माहात्म्यवाला होता है उसी प्रकार मैं भी नष्ट हुए माहात्म्यवाला था। फिर उस मन्त्री ने 'निश्चय से तत्काल में पकड़े हुए हाथी-सरीखे इस राजा को उद्विग्नउदास चित्तता का अभिप्राय अत्यधिक है, अन्यथा—यदि यह उदास चित्त नहीं है तो इस समय ही यह वेसा विशेष मलिनता से दुषित कान्तियुक्त कैसे हुआ? जैसे गुलिका मिश्रण से दूषित देहबाला गङ्गा नदी का १. पृष्टान्तालंकारः । २. श्लेष व दृष्टान्तालंकारः । ३. आक्षेपालंकारः । ४, उपमालकारः । ५. आक्षेपालंकारः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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