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________________ ८२ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पश्चतामञ्चेत् । भवेद्वावश्यमक्षिगतः । तवेष यावन्न मयि रोषविवं वर्षति तावबहीवास्य तवर्षामि पया चैये ममात्मजस्य राम्याभिषेकवार्ता प्रतिस्वप्नविषि किंवदन्ती च बाढमुन्छलिता। सा यदि वैवात्तव परमार्थसती तदापिरात्प्रकाम मे मनोरथाः फलिताः । सिद्धं च मे समोहितम् । न तवामचर्यम् । अनुकलं हि देवं करोति कुरङ्गमपि कठीरवातिवर्तनम् । अचलानपि च विदारयति नलदण्डन । केवलमत्रोत्तायकत्यं परिहले व्यम् । उत्तायकस्य हि पुरुषस्य हस्तायातमपि कार्य निधानमिव न सुखेन जीर्यति । भवति च जोषिलव्यसंवेहाय । किं च न स्थल अक्षितवशाहुम्बाराणि पच्यन्ते । नाप्युदपयरे पातुम्' इति च विलक्यं, तथामनुमयत बबत मधुरं यत्कायं तदपि मानसे कुरुत । रोति कलं हि भपूरः सविणं च भूजङ्गम पति ।। १७ ।। मूर्ना बहति लोकोऽयं पथा म्युमिहेन्धनम् । अनुशील्य भयं नेयस्तथारासिमहात्मना ।। १८० ॥ पुंसामसारसत्त्वाना कि फुहिक्रमझमः । भस्मीभवन्ति काष्ठानि तेजसानुगतान्यपि ।। १८१ ।। ज्ञानवानपि कार्येषु जनः प्रायेण मुह्यति । हस्तन्यस्तप्रधोपस्य कि म स्वलति शेमुषी ॥ १८२ ।। प्रायः सरलचित्तानां जायते विपवागमः । ऋजुर्याति यथा छेवं न बत्रः पादपस्तथा ।। १८३ ॥ अथांत ईर्ष्यालु तो मर जाता है । अन्यथा स्त्रियों से ईर्ष्या करनेवाला पुरुष निश्चय से वैसा मरण प्राप्त करता है जैसे कृत्या देवी विशेष) की आराधना करनेवाला पुरुष मरण प्राप्त करता है । अथवा यह निश्चय मे स्त्रियों से द्वेष करने योग्य होता है ! अतः यह राजा जब तक मेरे ऊपर क्रोधरूपी विप का क्षरण नहीं करता तब तक मैं हो इसके ऊपर कोषरूपी विष का क्षरण करती है। जिसप्रकार से यह मेरे पुत्र ( पशोमतिकुमार ) की राज्याभिषेक-वाती, दुष्ट स्वप्न का शमन-विधान और राजा के दीक्षा-ग्रहण की लोक-वार्ता विशेषरूप से उठो है, वह दीक्षा ग्रहण-वार्ता यदि पुण्ययोग से वास्तविक सत्य होगी तब तो इस समय ही मेरे मनोरथ विशेष रूप से पूर्ण हए ! मेरा मनोरथ अवश्य सिद्ध होगा ही। यह मनोरथ-सिदि लक्षणाला कार्य आश्चर्यजनक नहीं है। क्योंकि निश्चय से जब देव अनकल होता है तब वह ( हितकारक पुण्य) हिरण को भी सिंह का घातक कर देता है और पर्वत को भी नलदण्ड रो विदीर्ण कर देता है, परन्तु इझा कायं में उत्सुकता-अस्थिरता छोड़ देनी चाहिए । क्योंकि अस्थिर चितवाले पुरपका हस्त में आया हया भी कार्य निधि-सरीखा अनायास से परिणमन नहीं करता-सिद्ध नहीं होता एवं अस्थिर चित्तता जीवन को संदिग्ध कर देती है। अर्थात् - अस्थिरता में मरण भी उत्पन्न हो जाता है। नियचय से भूखे पुरुष को इच्छामात्र से उदम्बर फल नहीं पकते किन्तु प्रयत्न द्वारा पकाये जाते हैं । इसोप्रकार उबलता हुआ जलादि पोने के लिए शक्य नहीं होता। 'तुम लोग मनुष्यों का सन्मान करो व कानों को अमृत सरीखे मिष्ट वचन बोलो तथा जो कर्तव्य चित्तमें वर्तमान है, उसे करी । जैसे मयूर मधुर शब्द करता हुआ विषैले सांप को खा लेता है ॥१७२।। जैसे पह लोक ईंधन को जलाने के लिए मस्तक पर धारण करता है, वैसे नीतिशास्त्र में प्रवीण पुरुष्य को भी शत्रु को शान्त करके क्षय करना चाहिए ॥१८०|| स्वाभाविक शक्तिहीन पुरुषों की पराक्रम-परिपाटो क्या कर सकती है ? जैसे ईंधन अग्नि से सहित होते हुए भी भस्म हो जाते हैं। ।।१८।। ज्ञानवान पुरुष भी प्रायः करके कर्तव्यों में अज्ञान युक्त हो जाता है। जैसे अपने हाथ पर दीपक स्थापित करनेवाले पुरुष की बुद्धि क्या स्खलित नहीं होती? 1॥१८२१ सरल ( निष्कपट ) चित्तशाली पुरुषों का प्रायः करके मरण होता है। जैसे सरल-सीधा-वृक्ष काटा जाता है वैसे वक्र ( टेडा ) वृक्ष नहीं काटा जाता । अभिप्राय यह है कि इससे मनुष्य को कुटिल ही होना १-२. दृष्टान्तालंकारः। ३, दृष्टान्तालंकारः। ४. आक्षेपालंकारः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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