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________________ चतुर्थ शाश्वासः एवमन्यान्यपि विधापय त्वमेव वेचहिमपरिजनपूगापुरःसराणि गृहकार्याणि । अहो वैरिकुलकमलाकरनीहार प्रतीहार, विसृज्य तामयमशेषोऽपि पंचायधमनुजोविमिवहः । अहम ध्येय विरप्रवृत्तमासिंजातश्रमो मनागम्यस्माद्वसुमतोतिलकास्सभामण्डपारवेशावतिनि तस्मिन्मदनविलासनामनिवाराभवने स्वगविहाराम गामि। सदनु तस्मिन्मथ म्यातलमसंकृतपस्यहो विक्रमालंकार, सा भवोयामृतमतिमहादेवी विवसादोयमादातुमागत्य गमात्सुमशेखरकात्पुर.पबाटोमंदनवमयन्तिकायाः प्रसाधिकाया दुहिनुविनोदकलहंसिकायाश्च सधीस्याः संजातसकलसेवायसरायो संसदि प्रयत्तमुदन्तमाकर्ण्य, 'न बल में यामिनोसमाचरितसाहसावस्प वसुमतीपतेरपरमेवंविषकूटकपटानुष्ठानमस्ति । मन्ये च नुष्करमेवमस्मास्थिरचित्तस्य चिरकालभावीनि भविष्यस्यापि । फुलवधूनां हा यभन्यश्च देवधिजाग्निसमक्षं मातापितृविजोतस्प कायस्यैव भवतीयर, न मनसः । तस्य पुनः स एव स्वामी यत्रायमसाधारणः प्रवर्तते परं विध्यविश्माषरः प्रणयः । तथाहि पुरापि कि न रेमे गङ्गा सह महेश्वरेण, राधा नारायणेन, बृहस्पतिपत्नी विजराजेन, तारा च यालिना । महासत्वेषु हि मगति न किचिद्दष्करभस्ति । अन्यत्र विरक्त सि रागप्रत्यानधनात् । को हि नामायःपिण्ड इय लप्नातप्ते मनसी संपातुमर्हति । किं च परमकुहन इव पुरंत्रीषु बुद्धिमानवाप्नोति स्वर्भपसम् । अन्यथा कृत्यारायक इव भ्रवं पवजनः लिए देवता-यूजक पुजारी ब्राह्मण को भलो प्रकार आमा दो। एवं यशोमति कुमार के. राज्याभिषेक करने की लग्न दलोन के लिए जगहों -पोतिषियों को उपदेश को : देवपूजा, द्विजपुजा व परिजन ( कुदम्ब ) पूजाआदि दूसरे मा गृहकार्य तुम्ही कराया। शन समूहरूपी काल वन के शोषण के लिए हिम-सरोवे हे द्वारपाल ! तुम इस समस्त किंकर-समूह को भी उपयुक्त स्थानपर भेज दो एवं यह में भी, जिसे लम्बी वेला पर्यन्त उतान्न हुए वार्तालाप में खेद उत्पन्न हुआ है, इस 'वसुमतीतिलक' नाम के मभा मण्डप से कुछ निकटवर्ती उस 'मदनदिलाम' नाम के निवास भवन में स्वच्छन्द विहार-निमित्त जाता है। इसके बाद जब में प्रस्तुत 'मदनविलास' नाम के निवास भवन में स्थिति हुए पलंग को अलङ्कत कर चुका था तब अहो ! पराक्रम-पञ्चानन मारिदत्त महाराज ! उस मेरी अमृतमति महादेवी ने दिन सम्बन्धी भोजन-ग्रहण करने के निमित आकर वापिस गये हुए 'कुसुम शेम्बर' नाम के विद्यार्थी से एवं विनोद कलहंसिका' नाम को मखी से, जो कि 'मदनदमयन्तिका' नाम की गृङ्गार कारिणी को पुत्री श्री, सभा में, जिसमें समस्त पुरुषों को सेवा का अवसर उत्पन्न हुआ है, उत्पन्न हुए वृत्तान्त को सुनकर निम्न प्रकार विचार किया-'इस ग़जा के ऐसे कुट कपट का कारण निश्चय से मेरे द्वारा रात्रि में किये हुए दुबिलास को छोड़कर दूसरा नहीं है। ऐसे अस्थिर चित्तवाले इस यशोधर महाराज को आयु ( जीवन ) दीर्घ होगी, इसे मैं असम्भव मानती हूँ। अर्थात्- यह निकट मृत्यु है। निश्चय से यह यशोधर अथवा इससे भिन्न दुसरा कोई भी मानव देव, ग्राह्मण व अग्नि के समन्न माता-पिता द्वारा दिये गए कुलवघुओं के शरीर का ही स्वामी होता है, न कि उनके चित्त का । उन कुलवधुओं के चित्त का वही स्वामी होता है, जिस पुरूष में ऐसा प्रेम पाया जाता है, जो कि अनोखा और विश्वास एवं दुःख-निवारण का स्थान होता है । अब अमृतमति उक्त वात को दृष्टान्त-माला द्वारा समर्थन करती है पूर्वकाल में भी शन्तनु राजा की पत्नो गल्ला ने क्या महेश्वर के माय रतिविलाम नहीं किया ? राधा नाम की गोपी ने क्या श्रीनारायण ( श्रीकृष्ण) के साथ रतिविलास नहीं किया ? और बृहस्पति की पत्नी ने क्या चन्द्रमा के साथ रमण नहीं किया ? एवं सुग्रीव की पत्नी तारा ने चालि के साथ कना रतिबिलास नहीं किया ? निश्चय से महासाहसियों को संसार में कोई भी कार्य असम्भव नहीं है, परन्तु विरचित को अनुरक्त बनाना शक्य नहीं । निश्चय से कौन पुरुष लोहे के गोलों-सरीखे तप्त और अतप्त चित्तों को जोड़ने में समर्थ होता है ? विशेषता यह है कि केवल स्त्रियों से ई न करनेवाला बुद्धिमान पुरष हो अपना कल्याण प्राप्त करता है,
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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