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________________ ८७ यशस्तिलकचम्पूजयव्ये तपा व लोकिको श्रुतिः-किल वृहस्पतिः सव्वतोऽपि त्रुङ्कारमगरे लोचनाञ्जनहरेण स्तियन मिखापवादषितः शत. ऋतुसमाया प्रवेश न लेभे । अलब्धाशनशेिन तु पजकमाग्ना धाग्जोयनेन 'अयं भिक्षाप्रमणध्यानाभकामक्षयति' इत्युपहतश्चक्रपाणिः परित्रावाराणस्याम् । मधुपेषु मध्ये गीतपयाश्च मार्कण्डतापमस्तापसाट । ज्ञान ध प्रतिकूलबंदोपनिपातमोषमिव न भवति विहितोपयोगमप्यक्रियाकारि । किं नु खल्वनो पायनो येन म सानु कम समाचार । पौलस्त्यो नीतिशास्त्रषु नाघोषीदाण्डक्योपाख्यानम्, पेन स परदारानपाइरत् । नपंग न सम्यगृपासितं गुरुकुलं येन सप्तर्षीम्सयुग्यानझार्थोत । प्रजापति एव एटो वा. येनात्महितरि अनश्चकार । वरचिश्च वृषलीनिमित्तमासबनिपोहनमिति । (प्रकाशम् ।) अन्न, न बाललिपि में कदाचिन्ततिलोमतां गतासि । न बांध कथमधंव ते चन्द्रमसेर प्यस्थाने दुराग्रहमालीममा मतिः सममनोति । तत्पर्याप्त मत्रालापपरम्परा। भवतु । भवरान प्रमाणम् । उत्तिष्ठ । ननु सर्वव पूर्यन्तामत्र कामितानि । आहूय स्वमेयाविश कृकवाकुषिनिर्माण शिल्पिनः । सापु समाज्ञापय स्वमेव भगवतीभवनशोभारम्भाय देखभोगिनम् । अनुशाधि स्वमेव यशोमतिकुमारस्य राज्याभिषेक दिवसगणनाय मौहतिकान । है, अत: किस मागं से प्राणी का गमन हो ?' इगप्रकार की पास में पढाइमा मैं गगि इम माता द्वारा प्रतिज्ञा की हुई बात :आटे के मुर्ग की बलि) तिरस्कृत करता हूं तो य समीपवर्ती लाम हे राजन् ! बुद्ध का फल आग्रह न करना है' इसप्रकार उपदेश देते हुए मेरे उपाध्याय हो जाँगग एवं रापस्त पुरुषों को रागक्ष तिरस्कृत को हुई यह वृद्ध माता न मालूम क्या करेगी ? अपने मन में वर्तमान शुद्ध भी कर्नव्य करने की इच्छा यदि दूसरों के चित्त को प्रमुदित नहीं करती तो बह पुरुष को कल्याण करनेवाली नहीं होती । उक्त बात को समर्थक लौकिक कथाएँ-निस्सन्देह 'बृहस्पति' सदाचारी होनेपर भी अब जुझार नाग के मगर में 'लोचनान्जनहर' नामक जुआरी द्वारा मिथ्या-अपबाद से दूषित हुआ तब इन्द्र-सभा में प्रविष्ट न हो सका। दूसरी कथा--'चक्रपाणि' नामका सन्यासी 'बजक' नाम के स्तुतिपाठक से, जिसे प्रस्तुत संन्यासी से भोजन का भाग नहीं मिला था, 'यह मिक्षार्थ घूमने के बहाने से बच्चों को खाता है' ऐसी निन्दा रो दूषित होने के कारण काशीनगर में प्रवेश न कर सका । 'मार्कण्ड' नामका तपस्वी, जिसने शरावियों के बीच में उनके स्नेह से वोवल दुध ही निगा था, 'इसने शराब पी लो' इसप्रकार की लोक-निन्दा के कारण तपस्वियों के आश्रम में प्रवेश न कर सका। प्रतिकूल माग्य के उदय से व्याप्त हुआ ज्ञान, उपयोग किया हुआ भी सेवन की हुई बीधि की तरह सफल नहीं होता। निस्सन्देह क्या 'द्वैपायन' नाम के गुनि मूर्ख थे, जिससे उन्होंने द्वारिका नगरी को भस्म किया । क्या लक्षाधिपति रावण ने नीतिशास्त्रों में 'दाण्डनप' राजा का उदाहरण नहीं सुना था जिसमें उसने परस्त्री ( सती सीता ) का अपहरण किया। क्या 'नहुष' राजा ने भली प्रकार गुमपाल को उपासना नहीं की? जिससे उसने सप्तर्षियों को बेलों सरीखे बाहन बनाए । क्या ब्रह्मा विवेक-हीन या बहिरे थे? जिससे उन्होंने अपनी पुत्री के भोगने की इच्छा की । कात्यायन नाम के तपस्वी ने दासी के निमित्त शराय से भरा हुआ घड़ा उठाया। अब यशोधर महाराज ने स्पष्ट कहा-हे माता ! जब बाल क्रीड़ाओं में भी किसी भी अवसरपर तुमने मेरी प्रतिकूलता प्राप्त नहीं की, अर्थात्-सदा मेरे अनकल रही-तघन जाने आज चन्द्रमति (निर्मल बुद्धि-युक्त ) तेरी बुद्धि अयोग्य आचरण में दुष्ट आग्रह से विशेष मलिन किस प्रकार हुई? अतः इस कार्य में विशेष वार्तालाप करने से कोई प्रयोजन नहीं। अस्तु इस कार्य ( आटे के मुर्गे का मारण व उसको मांस समझकर मक्षणरूप कार्य ) में आप ही प्रमाण हैं। हे माता ] उठो । निस्सन्देह प्रस्तुत कार्य में आपके हो मनोरथ पूर्ण हों। तुम्ही शिल्पियों को बुलाकर मुर्गा बनाने की आज्ञा दो व तुम्ही कुलदेवता-गह की शोभा करने के
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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