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________________ ७९ चतुर्थं आश्वासः अस्ति च जगत्प्रसिमियमुवाहरणम्-एकस्मिन्नेव किल कामिनोफलेवरे मुनिकामिकुणपाशिनामभिनिवेशनिमित्तो विचित्रनिकः कर्मविपाक इति । कि च । नरेषु संकल्पवशेन मन्मथो यथा प्रवर्तेत पयवच धनुषु । तर्थव फर्माप्पुभयानि मानसावधाति योषाषिपतिविम्भितात् ॥१५८॥ इथमिज्या छ मे मोहथिङ्गला कालरात्रिरिव दुष्परिहारा जानुभजिनीव में गतिभङ्गाय प्रत्यवस्थिता । तवत्राहम् 'इतस्तटमितो ध्याघ्रः केनास्तु प्रागिनो गतिः' इतीमं न्यायमापतितो यथवगणयेयमस्याः प्रतिश्रुतम्, तदेत एष समोपतिनो 'देव, बुद्धेः फलमनाग्रहः' इत्पुपविशन्तो भविष्यनस्युपाध्यायाः । सकलजनसमर्श परमपमानिता चेयं जरती न जाने कि करिष्यति । स्वस्य च मनसि चोक्षामि क्रियोटोशा सा न भवति सः श्रेयस्करी, या न रजयति परेषां चेतांसि । पटना नगर में 'पुरुहूत' नामका देवर्षि ( दिगम्बर मुनि ), आतपन योग में स्थित हुआ भी, जिसने गुप्तचर द्वारा अपने पुत्र को युद्धस्थिति सुनी थी गृहस्थसरीस्त्रा हो गया'1'सर्वलोक में विख्यात निम्न प्रकार दृष्टान्त वचन है-केवल मरी हुई धेश्या के शरीर को देखकर दिगाना पनि न सापक विद् तथा कने के अभिप्राय में कारण नानाप्रकार के आनयवाला कर्मविपाक ( उदय ) है। जैसे कामवासना के अभिप्राय से मनुष्य में काम ( मैथुनेच्छा ) उत्पन्न होता है और जैसे मरे हुए बछड़े का करक ( ढाँचा ) देखने से गायों के थनों से दूध झरता है. वैसे ही यह जीव मानसिक शुभ-अशुभ अभिप्राय से क्रमशः पुण्य-पाप कर्मों का वध करता है ।। १७८ ॥ मोह ( अज्ञान ) से विह्वल-व्याकलित हुई मेरी माता ( चन्द्रमति ) और मोह ( प्राणि-हिसा ) से विह्वल ( भयानक । यह यज्ञ, बेसा मेरे लिए दुःख से भी त्यागने के लिए अशक्य है जैसे मोह । मूर्छा ) से विह्वल-व्याकुलित करनेवाली-कालरात्रि दुःख से भी त्यागने के लिए अशक्य होती है। एवं जैसे यन्त्र विशेष गतिभङ्ग ( गमन-रोकने ) के लिए स्थित होता है जैसे यह मेरी माता व यज्ञ गतिभङ्ग ( ज्ञान नष्ट करने ) के लिए स्थित है। उससे में यहाँपर 'इस ओर जाने से नदी का तट है और उस ओर जाने से ध्यान १. 'गपा फुसुमपुरे प्रतोदन्ताल्लेशवाहकादाकणितसुतसमरस्थिति रातपनयोग सुतः पुरुहूतो देवपिः' नागौर की है. लि. (क) से समुन्दुत पाठान्तर नोट:-यद्यपि इसका अर्थ भी उपर्युक्त सरीखा है तथापि यह पाठ मु० प्रति के पाठ की अपेक्षा विशेष उत्तम है। . २. पुरुहूत देवर्षि की कन्या--पाटलिपुत्र नगर के 'पुरुहूत' नाम के राजा ने पुत्र के लिए राज्यभार समर्पण करके जिन दीक्षा धारण कर 'दशपि' नाम प्राप्त किया। एवं पर्वत-मेखलापर शासपन योग में स्थित हुआ। उसने पत्रबाहक गुमचर से, जिसने प्रस्तुत विद्याधर की उपासना के लिए आए हुए श्रावक के साथ बातचीत को थी, शत्रुओं के साथ अपने पुत्र का युद्ध सुला । फिर कुगित हा. उसनं मुख करने का उद्यम किया और पहाड़ी से बने हुए सरीखा हो गया। बाद में अधिवानो चरणमद्धिधारी मुनि ने उसे समझाया--कि ऐसे त्रिक दिगम्बर वष को धारण करके इसप्रकार चिन्तवन करना योग्य नहीं है। ३. पमशान भूमि पर पड़ी हुई मृत वैश्या को देखकर दिगम्बर मुनि ने विवार किया-इसन तपश्चरण क्यों नहीं किया ? वृथा हो मर गई। जिससे मुनि को स्वर्ग का कारण पुण्य बन्ध हुआ। फिर उसे देखकर वेश्यावत विद ने विचार किया कि यदि यह जोक्ति रहती तो मैं इसके साथ मोग करता अतः उसे पाप का कारण दुर्गति का वन्ध इमा। फुले ने उसे देखकर उसके मांस-भक्षण की इण्या की, इससे उसे पाप का कारण नरक बन्य हुश्रा ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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