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________________ यशस्तिलक चम्पूका १२९० तदुक्तम् पहिले कारागारे समति व सूचोमुत्राप्रनिर्भेद्ये । अपि च निमीलितनयने तथापि काताननं व्यक्तम् ||३० ॥ स्वभावान्तरसं मूर्तिमंत्र रात्र मलस्यः । कर्तुं हावयः स्वहेतुभ्यो मणिमुक्ताफले षिव ।। ३१ ।। तमस्नेहातो रक्षोदृष्टेर्भवस्मृतेः । भूतानन्वयनाज्जीवः प्रकृतितः सनातनः ॥३२॥ चित्त में स्पष्टरूप से झलकने लगती है । यदि भावनामात्र से या स्पष्ट अवलोकन मात्र से मुक्ति प्राप्त होती है। तब तो दञ्चकों अथवा वियोगियों को भी मुक्ति होनी चाहिये । [ क्योंकि वे भी भावना से कमनीय कामिनीआदि इष्ट पदार्थों का स्पष्ट चिन्तन कर लेते हैं ।। २२ ।। कहा भी है-- सब ओर से बन्द जेलखाने में सुई की नोंक द्वारा भेदने के लिए अशक्य - अत्यन्त गाड़ अन्धकार के होते हुए और मेरे नेत्र बन्द कर लेने पर भो मुझे ( चोर या जार को ) अपनी प्रिया का मुख स्पष्ट दिखाई दिया । भावार्थ - भावना से वस्तु का चिन्तनमात्र होता है, किन्तु प्राप्ति नहीं होती । अतः नैरात्म्य भावना से मुक्तिश्री को प्राप्ति नहीं हो सकती । अन्यथा वियोगियों या बंधकों को भी मुक्ति का प्रसङ्ग हो जायगा || ३० ॥ ७. अब जैमिनीय ( मीमांसक | मत की मीमांसा करते हैं - जिस वस्तु ( भव्यात्मा ) में स्वभावान्तर (भाविक परिणति मिथ्यात्व व अज्ञानादि ) का सद्भाव है उसके मल ( दोष – अज्ञानादि व आवरणज्ञानावरणादि ) का क्षय उसके विध्वंसक कारणों । सम्यग्दर्शन आदि उपरायों) से वैसा किया जाना शक्य है जैसे खानि से निकले हुए मणि व मोतो आदि पदार्थों की मलिनता का क्षय उसके विध्वंसक कारणों ( शाशोल्लेखन आदि उपायों ) द्वारा किया जाता है । अर्थात् योग्यतावाले अशुद्ध पदार्थ भी मणि आदि की तरह उसके शुद्धि-साधनों से शुद्ध किये जा सकते हैं। भावार्थ - जैमिनी दर्शनकार ने जो घृष्यमाण अङ्गार का दृष्टान्त दिया था, वह असम्बद्ध है, क्योंकि लोक में किसी का मन शुद्ध और किसी का अशुद्ध देखा जाता है । अतः युक्तिसंगत यही है, जो भव्यात्मा आदि पदार्थ मलिन हैं उनको शुद्धि मलिनता नष्ट करने वाले उपायों ( सम्यग्दर्शन आदि सावनों) से वेसी शक्य है जैसे खानि से निकले हुए सुवणं की किट्टकालिमा छेदन, भेदन अग्निपुट-पाक आदि उपायों से दूर की जाती है। अथवा जैसे मणि व मोती आदि वस्तुओं की मलिनता उसके विध्वंसक उपायों से दूर की जाती है। इसमें किसी प्रकार की बाधा नहीं है ||३१|| आचार्य बृहस्पति ( चार्वाक ) मल की मीमांसा करते हैं - प्रकृति ( शरीर व इन्द्रियादि) को ज्ञाता यह जीव (आत्मद्रव्य ) सनातन ( शाश्वत - अनादि अनन्त है; क्योंकि 'तदहर्ज स्तने हातः ! उसी दिन उत्पन्न हुआ बच्चा | पूर्वजन्मसंबंधी संस्कार से ] माता के स्तनों के दूध को पीने में प्रवृत्ति करता है । भावार्थ - यह प्राणी पूर्व शरीर को छोड़ कर जब नवीन शरीर धारण करता है उस समय ( उत्पन्न हुए बच्चे को अवस्था में ) क्षुधा से पीड़ित हुआ पूर्वजन्म में अनेक बार किये हुए अभ्यस्त आहार को ग्रहण करके ही दुग्ध पानादि में प्रवृत्ति करता है। क्योंकि इसकी दुग्धपान में प्रवृत्ति और इच्छा, बिना पूर्वजन्मसंबंधी अभ्यस्त आहार के स्मरण के कदापि नहीं हो सकती। क्योंकि वर्तमान समय में जब यह प्राणी क्षुबा से पीड़ित होकर भोजन में प्रवृत्ति करता है, उसमें पूर्व दिन में किये हुए आहारसंबंधी संस्कार से उत्पन्न हुआ स्मरण ही कारण है ।" निष्कर्ष – इस युक्ति से आत्मा का पूर्वजन्म सिद्ध होता है । १. तथा च गौतमः प्रत्याहाराम्यासकृतात् स्तन्याभिलाषात् ||१|| गौतमसूत्र व ३ ० १ सूत्र २२वी ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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