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________________ षध आश्वासः मानं पङ्गो किया धान्ये निःश नायकपम् । तातो जानकियारद्धात्रयं तत्पदकारणम् ।।२५॥ उपतंज हतं झामं क्रियाशन्यं हप्ता धाशानिम: क्रिया । पापलप्यायको नष्टः वयमपि च पङ्गुकः ॥२६॥ निःयाङ्कारमप्रवृत्त: स्पादि मोक्षसमीक्षणम् । उकसूनाकृतार पूर्व पश्चात्कोलेस्वसौ' भवेत् ।।२७।। अव्यक्त गरयो" नित्यं नित्य व्यापिस्वभावयोः । विवेकेन कथं ख्याति सास्यमुस्पाः प्रचक्षते ॥२८॥ सर्व रेतसि भारत वस्तु भाषमया स्फुटम् । तापमान्त्रेण मुक्तत्वे मुक्तिः स्थाविप्रलम्मिमाम् ॥२९॥ ३. पाशुपत ( शैव) मत-मौंमासा १३ इलोकों द्वारा )-ज्ञान-दीन पम्प को किया फल देनेवाली नहीं होती । अर्थात्-ज्ञान के विना केवल चारित्र से मुक्ति नहीं होती, जैसे जन्म में अन्धा पुरुरू अनार-आदि वृक्षों के नीचे पहुंच भी जाये तो क्या उसे छाया को छोड़कर अनार-आदि फलों की शोभा प्राप्त हो सकती है अपि तु नहीं हो सकती उसो प्रकार जीवादि सात तत्वों के यथार्थ ज्ञान के विना केवल आचरण मात्र से मुक्तिश्री की प्राप्ति नहीं हो सकती ।। २४ ॥ लँगड़े पुरुष को ज्ञान होने पर भी चारित्र (गमन) के बिना वह अभिलपित स्थान पर नहीं पहन सकता एवं अन्धा परुष ज्ञान के बिना केवल गमनादि रूप क्रिया करके भी अभिलषित स्थान में प्राप्त नहीं हो सकता और श्रद्धा-हीन पुरूप की क्रिया और ज्ञान निष्फल होते हैं । अतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पचारित्र ये तीनों मुक्ति के कारण है ।। २५ ॥ शास्त्रकारों ने भी कहा है-क्रिया ( चारित्र-आचरण ) से शून्य ज्ञान व्यर्थ है और अज्ञानी को क्रिया भी व्यर्थ है । जैसे देखिए एक जंगल में आग लगने पर अन्धा पुरुष दौड़ धूप करता हुआ भी नहीं बच सका क्योंकि वह देख नहीं सकता था | और लैंगड़ा मनुष्य आग को देखते हुए भी न भाग सकने के कारण उसी में जल मरा ॥ २६ ॥ ४. कोलमत समीक्षा–यदि भक्ष्य-अभक्ष्य-आदि में (सद्य-मांस आदि में ) निडर होकर प्रवृत्ति करने से मुक्ति प्राप्त होती है तब तो ठगों ( चोरों) व वधकों ( कसाई-आदि हत्यारों) को पहिले मुक्ति होनी चाहिए और बाद में कौलमार्ग के अनुयायियों को मुक्ति होनी चाहिए। क्योंकि ठग व वधिक लोग कुलाचार्यों की अपेक्षा पाप प्रवृत्ति में विशेष निडर होते हैं ॥ २७ ॥ ५. सांख्य-मत-समीक्षा---जब सांख्यदर्शनकार प्रकृति व पुरुष ( आत्मा ) इन दोनों पदार्थों को सदा नित्य ( सकलकालकलान्यापि-शाश्वत रहने वाले } और व्यापक (समस्त मूर्तिमान पदार्थों के साथ संयोग रखनेवाले ) मानते हैं तब उन दोनों को भेदवृद्धि वाली स्थाति ( मुक्ति ) कैसे कहते हैं ? क्योंकि उक बात युक्ति संगत न होने से आश्चर्यजनक है।। ___अभिप्राय यह है जब आपके मत में प्रकृति व पुरुष दोनों नित्य हैं, अत: वे किसी काल में पृथक् नहीं हो सकते एवं दोनों व्यापक होने से किसी देश में भी पृयक नहीं हो सकते तब आपको भेद बुद्धिवाली मुक्ति केसे युक्ति संगत कही जा सकती है ? ।। २८ ।। ६. नेरात्म्य भावना से मुक्ति मानने वाले बौद्धों की समीक्षा-भावना से सभी शुभ-अशुभ वस्तु १. भक्ष्माभक्ष्यपेयापेयादिए । २. बधक । ३. मोक्षः। ४. अन्य प्रश्नानं । '५, प्रकृतिजीनयोः। *. 'अन्य तरयोनिम' इति ( क)। ६. अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरकस्वभावं कूटस्थानित्यमिति नित्यस्म लक्षण। ७. भैदेन । ८. मुक्ति । ९. बियोगीनां वधकानां । १०. तत्वार्थराजवातिक पु० १४ ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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