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________________ अष्टम आश्वांसः *जातिपूजा कुल ज्ञानरूपसं पत्तपोषले । उशन्त्यहं पुतो के मवमस्मयमानसाः ११४५२॥ यो महात्मानमवलादेन' मोवते । स नूनं धर्महा यस्मान्न धर्मो धार्मिकविता ||४५३ ।। बलेवा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । वानं घेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने विने ||४५४॥ पनं पूजनं स्तोत्रं जपो ध्यानं श्रुतस्तयः । षोठा क्रियोबिता सद्भिर्देवसेवा गेहिनाम् ।।४५५॥ आापासनं श्रद्धा शास्त्रार्थस्य विवेचनम् । सस्क्रियाणामनुष्ठानं श्रेयःप्राप्तिकरो गणः ॥ ४५६|| ४७१ भावार्थ – नीतिकार प्रस्तुत आचार्यश्री ने कहा- 'सर्वत्र संशयानेषु नास्ति कार्यसिद्धि:' अर्थात्'सभी स्थानों में संदेह करनेवालों के कार्य सिद्ध नहीं होते' - ( नीतिवाक्यामृत सदाचारसमुद्देश सूत्र ५३ पृ० ३४३ हमारी भाषा टीका )' अतः विवेकी पुरुष की कार्य-सिद्धि के लिए सभी स्थानों में सन्देह नहीं करना चाहिए ।। ४५१ ।। मदों का निषेध गर्व-रहित मनोवृत्तिवाले ( विनयशील ) आचार्य, जाति ( माता के वंश की शुद्धि ), प्रतिष्ठा, कुल ( पिता को वंश-शुद्धि), विद्या, लावण्य, सम्पत्ति, तप व वल इनके गर्वोद्रेक ( विशेष अहंकार ) को मद या घमण्ड कहते हैं ।। ४५२ ।। जो मानव घमण्ड में आकर अपने साधर्मी जनों की निन्दा करके हर्षित होता है वह reas से धर्मं- घातक है, क्योंकि धर्मात्माओं के बिना धर्म नहीं है ।। ४५३ ॥ गृहस्थ के छह कर्तव्य देवपूजा, गुरु की उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये गृहस्थों के छह धार्मिक कर्तव्य है, जो कि प्रत्येक गृहस्य को प्रतिदिन अवश्य करने चाहिए ।। ४५४ ।। देवपूजा की विधि सज्जनों ने गृहस्थों के लिए देवपूजा के विषय में छह धार्मिक क्रियाएँ कहीं हैं - पूर्व में अभिषेक, पुनः पूजन, पश्चात् भगवान् के गुणों का स्तवन पुनः पञ्चनमस्कार मन्त्र आदि का जाप पश्चात् ध्यान और अन्त में श्रुतदेवता की आराधना ( स्तुति ) । अर्थात् -- इस क्रम से जिनेन्द्रदेव को आराधना करनी चाहिए ।। ४५५ ।। कल्याण- प्राप्ति के उपाय आचार्यों की पूजा करना, देव, शास्त्र व गुरु की श्रद्धा, शास्त्रों में कहे हुए मोक्षोपयोगी तत्वों का शान और शास्त्र-विहित क्रियाओं का आचरण ये सब कर्तव्य समूह कल्याण की प्राप्ति करनेवाले हैं ॥ ४५६ ॥ * तथा च श्रीमत्समन्तभद्राचार्य : 'ज्ञानं पूजां फुलं जाति बलमृद्धिं तपो वपुः । अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुतस्मयाः ।। २५ ।। स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान् गविताशयः । सोऽस्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकविता || २६ ।।' - रत्नकरण्ड० । १. गर्यो । २. निन्दया । ३. श्रुवाराधनमित्यर्थः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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