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________________ संतम आश्वासः ३२१ हर्तव्यः' ।' धनकोतिः- 'तात, यया तातादेशः' इति निगोयं गृहीतकुलदेवतादेय हनसकारोपकरणस्लेन श्यालेन महाबलेन पुरप्रतीलिप्रदेशानिःसरलवलोकितः। समालापिताच-हलो पनकीर्ते, प्रवर्धमानान्धकारावयापामस्या वेलायामबाण' क्योचलितोऽसि ।' 'महाबल, मासुलनिदेशान्नमसिस निवेदनाय दुर्गालये।' 'यो नगरजनासंस्तुत*स्वात्त्वं निवासं प्रति निवतस्य । अहमतदुपयावित मशाला स्पोधि प्रगामि । यत्र तातो षिष्यति सदा ततोषमहमपनेष्यामि ।' ततो बनकीतिमन्दिरमगात महाबलश्व कुलान्तोवरफादरम्। श्रीवत्तः सुप्तमरणशोकातोपान्त: प्रकाशिताशेषवृत्तान्तः 'सकननिकाम्य कार्यानुष्ठानपरमेष्ठिनि अंष्ठिान मन्मनोल्हाद चन्दलेखे विशाखे, कसमयं देषेपो. ममान्वया पायहेतुः प्रयुक्तोपायविलोपनकेतुः५४ प्रवासयितव्य: ५।' विशाखा-'छिन्, भेलभावात्सर्वमनुपपन्नं वया चेष्टितम् । अत: कुराण्डतो११ भोत: कुक्कुटपोत इव तूष्णोमारस्व । भविष्यति भवतोऽत्राषं मनोषितम्' इत्याभाष्य अपरेखुर्दयितजीविसलातोबफे मोदकेषु विषं संचार्य 'सुते श्रीमते, य एते कुन्दपुरआश्रयवाली [ अर्थात्-कुसुभी वस्त्र पहिन कर ] एवं पोसे हुए उड़द से बने हुए मोर व कौए को वलि देनी चाहिए। इसे सुनकर धनीति बोला---'पिताजी ! जैसी आपकी आज्ञा ।' घनीति कुलदेवता के लिए अर्पित करने योग्य सामग्री लेकर नगर को दोच को गली से निकला तो इसको उसके साले महादल ने देखकर कहा-'घनकोति ! इस निविड़ अंधेरी रात्रि की वेला में अकेले कहाँ जा रहे हो?' 'महावल ! मामा को आज्ञा से बलि देने के लिए दुर्गादेवी के मन्दिर को जा रहा हूँ। 'यदि ऐसा है तो तुम नागरिकों से अपरिचित हो, अतः गृह को लौट जाओ। दुर्गादेवी को यह मेंट देने के लिए में जाता हूँ। यदि पिताजी कुपित होंगे तो मैं उनका कोप दूर कर दूंगा।' धनकीति अपने गृह पर गया और महावल यमराज को उदररूपी गुफा में समा गया । पुत्र-मरण के शोक से समीप दुःखित हुए श्रीदत्त ने अपनी प्रिया 'विशाखा से समस्त वृत्तान्त निवेदित करके कहा-'समस्त गृहकर्मों के नियमपूर्वक करने में विष्णु-सरीखो समर्थ और मेरे मन में सुख उत्पन्न करने के लिए चन्द्रपछिक-सरीखी 'विशाखा' सेठानी ! इस अभागे बालक को, जो कि मेरा वंश नष्ट करने में कारण है और मेरे द्वारा किये हुए अनेक कपट-पूर्ण घातक उपायों के विनाश करने में केतु-जैसा समधं है, कैसे मारना चाहिए? 'सेठजी! [पस्जिकाकार के अभिप्राय से अविचारक होने के कारण अथवा टिप्पणीकार के अभिप्राय से ] वृद्ध होने के कारण तुमने सब कार्य अयोग्य किया । अतः बिलाब से डरे हुए मुर्गे के बच्चे की तरह तुम चुप चेठो । मापके सब मनोरथ पूर्ण होंगे।' दूसरे दिन सेठानी ने अपने पति का जीवन व्यथित करनेवाले लड्डुओं में जहर मिलाकर श्रीमति' १. दातभ्यः । २. दान । ३. एकाकी । ४. 'देयवस्तु' टिम्ब०, गैवेद्य टि० च० ! *. असंस्तुतः अपरिचितः । ५. हन्तकारं-दानं । ६. दातुं । ७. अगात्मृ तः इत्यर्थः । ८. समीपदुःखः । ९. निकाय गुहं । १०. सौम्य, हे भायें ! । ११. निर्भाग्यो वालिणः । १२. वंश । १३. मम कृतानेकपटविनाशसमर्थः । १४. नवमो ग्रहः | १५, मारणीयः । १६. 'वृद्ध' टि २०, 'भेल; अविचारकः' इति पनिकायां । १७. अबटमानं अयुक्तं त्वया कृतं । १८. 'मार्जारात्' टि० ख०, 'कुपण्डो मार्जारः' पं०। १५. पीठ केपु-ज्यपकेयु ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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