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________________ ३२० यशस्तिलकचम्पूकाव्ये सरसहतेन कज्जलेनार्जुनशलाकया तत्रव परिम्लिष्टपुरातनसूत्रे पत्ने लेखान्तरम् । तथाहि-'ययि धेष्ठिन्नी मामवयवचनं श्रेष्ठिनं मन्यते, महायलाच यदि मामनुलनीयवामप्रसर पिसरं गणयति. तास्म निकामं सप्तपुरुषपर्यन्तपरीक्षितान्वयसंपत्तये धनकोर्सये "फपदप्रक्रमेण हिजवेवमुखसमसमविचारापेक्ष श्रीमती बातव्या' इति । ततो यथाम्मातविशिणमिम' लेखमामुच्य समाचरितगमनायामनङ्गसेनायां धनकोतिश्विरेण 'विवागसावनिक: १"सोल्सेकमुत्थाय प्रथाय च श्रीवतनिकेतनं जननीसमन्धितगा प्रहाचलाय प्रशितमेवः श्रीमती. १२सखोऽभवत् । श्रीपत्तो वार्तामिमामाकर्ण्य प्रतणं प्रत्यावयं निधाय च तद्वषाय रामपानीबाहिरिकायां चण्डिकायतने कृतसंकेत संनद्धवपुषं पुरुषं पच्चराचरणपिशाची देवडोचीच परिप्राप्तोदवसिलो रसि धनकोतिं मुहराय बटुकटकपटमतिरेबमायभाये-'वत्स, मोये कुले किलैखमाचारो यदुत यामिनीमुने कारयामिनीप्रमुख प्रवेश प्रतिपन्नाभिमवफडणबन्धेन स्तनंधयागोषेन १५महारमानरसरक्ताशुकर तमाश्रयः स्वयमेव 'माषमयमो ५२रमौकुलि बलिरुपडिविया से ग्रहण किये हए और उपवन को लताओं को नई कोपलों के रस में घोले हए कज्जल से चाँदी की अथवा तृणों की सलाई ( लेखनी ) द्वारा उसी पत्र पर पहले के असर मिटाकर दूसरा लेख लिखा । लेख इस प्रकार था-'यदि सेठानी मुझे आदरणोय वचनों वाला मानती है और यदि महावल मुझे ऐसा पिता मानता है, जिसके बचन-समुह उल्लङ्गनीय नहीं है, तो सात पोढ़ी तक विशेप परीक्षित वंश लक्ष्मी वाले इस धनकोत्ति के लिये विना विचार की अपेक्षा किये ब्राह्मण व अग्नि की साक्षीपूर्वक दहेज के साथ मेरी पुत्री श्रीमती देनी चाहिए।' यथोक्त मार्ग वाले इस लेख को उसके गले में बांधकर अनङ्ग सेना चली गई। जब चिरकाल के बाद धनकोति की गाढ़ निद्रा का वेग दूर हुआ तो वह उत्कण्ठापूर्वक उठा और श्रीदत्त के घर पहुंचा और उसने माता-राहित महाबल के लिये पत्र दिखाया, जिससे वह श्रीमति का पति हो गया। श्रीदत्त इस समाचार को सुनकर शोन ही लौट आया और उसने धनकीति का वध करने के लिए राजधानी के बाह्य प्रदेशवी चण्डिका देवी के मन्दिर में सशस्त्र व वध-करने का संकेत किए हुए पुरुष को एवं निन्द्य कर्म का आचरण करनेवाली पिशाची सरीखी देवपूजिका स्त्रो को नियुक्त करके अपने गृह को चला गया और अत्यन्त कूटकपट की बुद्धिवाले उसने एकान्त में धनकीर्ति को बुलाकर फिर से कहा--'पुत्र ! निश्चय से मेरे गृह को ऐसो रोति है कि नवीन कण-बधन को स्वीकार करने वाले नवीन विवाहित कन्या के पति को रात्रि के अगले भाग में कात्यायनी देवी के प्राङ्गण प्रदेश में जाकर कुसुंभी रंग से रंगे हुए वस्त्र के १. पोलितेन । २. 'हेमत्तृणं वा' टि० ख०, 'अर्जुनं तृणं' इति पत्रिकायां । ३. पूर्वाक्षराणि परिमृज्य नूतनाक्षराणि लिखितानि । ४. आदरणीय । ५. 'जामातृदेयं वस्तु हिरण्यकन्यादायं कूपदः कथ्यते' टि. स्व०, पञ्जिकाकारीऽप्याहू-'सहिरण्यकन्यादाएं जामातृदेयं वस्तु कूपदः'। ६. वेदमुसो बह्निः। ७, मार्ग विशिखा। ८. कण्ट बद्ध्वा । ९. उद्गतः उपशान्तः । १०. सगर्व । ११. गत्वा । १२. भर्ता । १३. गोविन्दगृहात स्वगृहमागत्य । १४. पुरषं स्थापयित्वा । १५. 'मक्तिनाचरित' टि० ख०, 'कच्चरं कुत्सितं' पञ्जिकायो। १६, चण्डिकां । १७. गृह । १८. प्राङ्गणे । १९. कुसुंभ । २०. रक्तवस्त्रेण पितः । २१. माप-'धान्येन घटित' टि.स., 'भान्यपिष्टेन' दि.१०।२२. मयूरः । २३, काकः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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