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________________ सासम आश्वासः प्रशरिमं लेख पाहयित्वा सत्वरं प्रहेतव्यः ।' गोविन्दः-'श्रेष्ठित्, एवमस्तु ।' लेखें बंधभलिखत्-'अहो विवितसमस्तपात वाल महाम:, एष वाचस्मशविनाशवान रोऽवश्व विख्यो माल्यो वा विधातव्यः' इति । धनकीतिस्तथा तातर्वाणपलिम्यामाविष्टः सायष्टम्म" गलालंकारसवं लेखं कृत्वा गत्वा च अन्मान्तरोपकाराचीन'मौनावतारसरसीमेकामसौं सत्प्रवंशपविरपर्यन्ततिनि बने वर्मधमापनयनाप पिप्रियालवालपरिसरे १२मि.संज्ञमस्वासीत् । अनावसरे विहितपुप्पाचविनोबा सपरिच्छवा निखिलविद्याविग्धा पूर्वभवोपकारस्निग्धा संजीवनौषधिसमामानङ्गसेनानामिका गणिका तस्यैव सहकारतरोस्तलमुपढौमय विलोक्य च निःस्पन्दलोचना चिराय तमनङ्गमिव "मुस्तफुसुमास्वतन्त्रं १'लोहात्तरमित्रमशेषलक्षणोपलक्षितमूति घनौति पुमरायुधोसरस्वतीसमागमादेशरेतात्रणव प्रकटविकितकर्कोट येण' बन्धुरमध्यप्रवेशकण्टदेवाबावायापायप्रतिपावनाक्षरालेखं लेक्षमवाघयत् । लिलेल्या च तं वाणिजकापस हत्येन शिवकुर्वतो लोचनामनकरण्डानुपातेन बमल्लिएल्लवनिर्यापुत्र से कुछ जरूरी बात निवेदनीय है । अतः प्रकृष्ट घुटनों वाले इस युवक को यह पत्र देकर शीघ्र भेज दो।' गोविन्द ने कहा-'श्रेष्ठिन् ऐसा हो ।' उसने पत्र में यह लिखा था-'माप-तोल को कला के ज्ञाता महावल ! यह युवक हमारे वंश को ध्वंस करने के लिए अग्नि-सरीखा है, अत: पा तो या विष र समारने लायक गासलों द्वारा वध करने योग्य है।' पिता ( गोविन्द ) और वैश्यपति ( श्रीदत्त) द्वारा माशापित हुआ धनकोति उस मुद्राङ्कित पत्र को अपने गले का आभषणरूप मित्र बना कर उस उज्जयिनी नगरी की ओर चल दिया, जो कि पूर्वजन्म में किये हुए उगकार के अधीन हुई मछली के जन्म के लिए बड़े तडाग-सरीखी है और नगरी के निकट पहुंचकर वह नगरी के प्रवेश-मार्ग के निकटवर्ती बन में मार्ग को थकावट दूर करने के लिए आम्रवृक्ष की क्यारी के समीप देश में निश्चेतनता पूर्वक सो गया। इसी अवसर पर पुषण-वयन की क्रीड़ा करनेवाली, अपने सेवक जनों से सहित, समस्त विद्याओं में निपुण, पूर्वभब ( मछली को पर्याय ) में किये हुए उपकार से उससे स्नेह करनेवाली एवं संजीवन बूटी-सरीखी जीवनदात्री अननसेना नाम की वेश्या, उसी आम्रवृक्ष के नीचे गई और ऐसे धनश्री को देखकर निश्चल नेत्रों वाली हुई, अर्थात्-टकटकी लगाकर देखने लगी। जो ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-पुष्परूपी बाणों की पराधीनता से रहित हुआ (वाणों के विना ) कामदेव ही है--जो पूर्वजन्म का मित्र है, एवं जिसका शरीर समस्त शुभ लक्षणों से सुभोभित है। इसके बाद उसने स्पष्ट जाना हुई कण्ट को तीन रेखाओं से मुनोज्ञ मध्यभाग वाले उसके कंठदेश से, जो ऐसी मालूम पड़ती थी-मानों-उसकी चिरायु, लक्ष्मी ब सरस्वती के समागम को सूचित करनेवाली तीन रेखाएं थीं, पत्र ग्रहण करके पढ़ा, जिसमें धनकीति के वध करने की सूचक अक्षरपक्ति चारों ओर लिखी हुई थी। इसके बाद उस निकृष्ट वणिक् को हृदय में धिक्कार देती हुई उसने अपने नेत्ररूपी अञ्जन को १. प्रकष्टजानुः । २. प्रेधणीयः । ३. पौलवं तुला मान । ४. विषण वध्यः । ५. मुशलेन वध्यः । ६. गोविन्द । ७. मुधासहितं । ८. पूर्वजन्मनि यो मत्स्यः स तत्र वेश्या जाता वर्तते । ९. उज्जयिनीम् । १०. पदिरः मार्गः । ११. विकप्रियश्चूतः । १२. निश्चेतनं । १३. चतुरा। १४. वागान् बिना कन्दप । १५. पूर्वजन्मापकारिणं । १६. कण्टरखा। १७, ज्ञात्वा। १८. निन्द्र पइक्तिरहितं । १९. निन्दती।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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