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________________ १७० यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पेष्ठिन् एतस्यामशालीभूसस्म मग्नस्यावलोकनात् ।' कल्याणमित्र:--'राजन, मेवमभिनिवेश कृपाः । एष खलु भगवान्पुरा कलिङ्गाषिपतिस्तव पितुरन्धपतबन्धादेव निसरी माननीयः सकलविश्चक्रषिकमाकान्तविनतसामन्तमुखमुकुपन्दीकुतकणसमवलोऽभिसारिकामिव स्वयमागता भिमं अपलाङ्गनाभिषावमस्य निखिललोकमहनीये तपनि वर्तमानः परमेष्की कर्ष मामाबंशिकलोकलोचनानन्देन त्वरा मनसाप्मषमतयः । किच। सुझानुभवने मानो नपनो जम्मसमागमे । बाल्ये नग्नः शिवो नानो नग्नचिन्मशिनो पतिः ।।१३१।। नग्नत्यं सहजं लोके विकारो वस्त्रवेष्टनम् ! नग्ना चे कार्य बन्या सौरभेयो दिन दिने १५१३२।। पापिष्ठं पापहेतुर्या पश्चानिष्ट विचेष्टमम् । अमलकरं वस्तु प्राधितार्थविधाति च ॥१३३॥ शानध्यानतपःपूताः सर्वसत्त्वहिते रताः । किमन्यन्मङ्गलं लोके मुनयो पद्यमङ्गलम् ॥१३४॥ भाषः क्वापि भवेदानां सर्वासिम्यक्रमः समः । कि व्योमापामयः पूषा पक्षपाताप्रकायते ।।१३५।। लोलम्बिया राम्नायाः परेशावशवलयः । अशक्तास्तत्वं गन्तं ततो निन्नां प्रपत्रिरे ॥१३६।। धर्मकर्मोद्यसोऽप्येष मुनिलोकस्त्वया यया । नोयेतावति वेव तवा कास्य नपःक्रिया ।।१३७।। बने वा नगरे वापि वपुःशंषा मुनीश्वराः । निविघ्नं यत्तपस्यन्ति तन्माहात्म्य तब प्रभोः ।।१३८|| साल दुराग्रहैनाथ मान्यमेतन्मुनि प्रति । प्रतिबध्नाति हि धेयः पूज्यगुजामतिक्रमः ॥१३९॥ बिदपक-पुत्र अजमार'हे बणिक-स्वामी इस अमङ्गलीभूत ( अशुभ ) नग्न में दखने से। कल्याण मित्र-ऐसा अभिप्राय ( बिचार ) मत करो। क्योंकि निश्चप से यह भगवान पूर्व में कलिङ्ग देश के राजा थे, जो कि तुम्हारे पिता के वंश-संबंध से ही सदा माननीय ( पूज्य ) हैं, जिनके चरणनखमण्डल समस्त दिशा समूह में रहने वाले व पराक्रम से पराजित होने से नीभूत हाए सामन्ती (अधीनस्थ माण्डलिक राजाओं) के मुखों के लिए दर्पण किया गया है। जिसने व्यभिचारिणी स्त्री-सरोवो स्वयं आई हुई राज्यलक्ष्मी को चञ्चल स्त्री सरीखी समझकर निरस्कृत किया और जो समस्तलांक से पुज्य रापश्चर्या में स्थित हो रहा है, ऐसा परमेष्ठी (मोक्षपद में स्थित) अतिथिजनों के नेत्रों का आनन्दित करने वाले आप से किस प्रकार मन से भी तिरस्कार करने योग्य है ? विशेषता यह है यह मानव काम-सुख भोगने के अवसर पर नग्न होता है. जन्म-प्राप्ति में नग्न होता है, वाल्यावस्था में नग्न रहता है और शिवजी भी नग्न हैं तथा चौल-रहित संन्यासी भी नग्न होता है ॥ १३१ । लोक में नग्नता स्वाभाविक है । बस्त्र से आच्छादित होना यह तो विकार है। नग्ग गो प्रत्येक दिन किस प्रकार से पूजनीय होती है ।। १३२ ।। ऐसी वस्तु अमङ्गल ( अशुभ ) कड़ी जाती है, जो पाप-पुक्त अथवा पाप का कारण है, जो अनिष्ट ( अप्रिय ) है और विचेष्टन ( ग्लानि-जनक ) है तथा जो प्रार्थना किये हुए पदार्थ का विघात (नाश ) करने वाली है ॥ १३३ ॥ ज्ञान, ध्यान व तपश्चर्या से पवित्र नथा समस्त प्राणिगों के कल्याण करने में अनुरक्त हुए साधु लोग यदि अमङ्गलीक (अशुभ) है तब लोक में दूसरी कौन वस्तु मङ्गलोक होगी? ॥१३४।। राजाओं के परिणाम यद्यपि किसी भी मत में होते हैं तथापि उन्हें समस्त मुनियों को विनय समान रूप से करनी चाहिए । आकाश च समुद्र के आश्रय रहने वाला सूर्य क्या पक्षपात से पदार्थों को प्रकाशित करता है ? ॥१३५।। ऐसे मानवों ने, जो चञ्चल इन्द्रियों वाले हैं, जो दुष्ट आम्नाय वाले हैं, जिननी प्रवृत्ति दूसरा को इच्छा के अधीन है एवं जो मुनिपद प्राप्त करने में असमर्थ हैं, उसकारण से मुनि-निन्दा की है ।। १३६ ॥ देव ! धार्मिक क्रियाओं के पालन करने में तत्पर हआ भी यह मनि-समह जब तुमसे अनादर में प्राप्त कराया जाता है, तब इसकी तपश्चर्या क्या है? ॥ १३७॥ ऐसे मुनीश्वर जिनका शरीर ही शेष है (जो छत्र-आदि रक्षा के साधनों से रहित हैं), वन में अथवा नगर में भी जो निर्विघ्न तपश्चर्या करते हैं, वह आप स्वामो का हो माहात्म्य है ।। १३८ ।। हे स्वामिन् । पूजनीय इस मुनि के प्रति दुराग्रह करने से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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