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________________ १७१ पञ्चम आश्वासः पर्याप्तमनया दुर्यासनया 1 arere. तपःप्रभावप्रणतमि लिहिपाल मीलिमणिवेदिकाषिदेवतायमानचरणमे परमेष्ठिनम् । अतस्ती द्वापि मेमिन सूर्याचन्द्रमसौ तं भगवन्तं प्रदक्षिणीकृत्य कृतप्रणाय च पुरः प्रत्यक्ष नवम विपविविशतुः । भगवान्तरेश्वरमुनरोकृत्यो, त्मच भविष्यलक्ष्मोलतोल्लासप्रथमपत्स्वोहामिव पत्राश्रम् कामधेनुरोगे श्रमागमनी देवमानवमनोरसिद्धिर्धर्मबुद्धिरियमस्तु सदा वः ।। १४० ।। अनि च। त्वं यर चैरिवनिताननेकान्त निष्यन्दसंपदि मतोऽसि नरेश राजा । आदित्य एव च भवान्नहितानाङ्गनिस्तोकशोकतपत पलदीपनेषु || १४१ ।। * राजा 'वाविधानि मनोदुविलसितानि । पचेयं भगवतामस्तुङ्कारकरूयाणपरम्पराशंसनपरायणता । तदत्रास्य grafरितस्य निजशिरःकमलेन भगवकारणाचंनमेव प्रायश्चेतनं नात्यत् । इति परमपराक्रमतया निःसौमसाहसतपा कुत्ताभिनिवेशी सुनीशेन महीशः किलेवमादिदिनों विशांपते, मंद संस्थाः । वितानि हि बेहिनां स्वभावच उचलपा निश्चय से पूजनीयों को पूजा का उल्लङ्घन कल्याण को रोकता है ।। १३९ || अतः इस दुष्ट विचार से कोई लाभ नहीं। आगे इस परमेत्री को नमस्कार करें, जिसके चरण तपश्चर्या के प्रभाव से झुके हुए समस्त दिक्पालों के मुकुटों की गणिरूपी वेदी पर अधिष्ठात्री देवता के समान आचरण कर रहे हैं। इस कारण उन दोनों ( कल्याण मित्र नाग के वणिक स्वामी व यशोमति महाराज ) ने उस पूज्य श्री सुबत्ताचार्य की वेसी प्रदक्षिणा करके जैसे सूर्य व चन्द्रमा सुमेरु को प्रदक्षिणा करते हैं प्रणाम किया । पश्चात् वे दोनों प्रत्यक्ष उत्पन्न हुए-नम (राजनीति) व विनय सरीखे प्रस्तुत आचार्य श्री के समक्ष आसीन हुए। पूज्य सुदत्ताचार्य यशोमति महाराज को लक्ष्य करके ऐसा हाथ उठाकर कहा- जो कि ऐसा मालूम पड़ता था मानों भविष्य में उत्पन्न होने वाली लक्ष्मरूपी लता के उल्लास ( विकास ) के लिए उत्कृष्ट पल्लव की उत्पत्ति हो है । आपके लिए सदा यह वर्मवृद्धि हो, जो कि समस्त आनन्दों के सङ्गम करने में कामधेनु है । अर्थात् — जैसे कामधेनु ममस्त इच्छित सुखों का सम करानी है वैसे ही यह धर्मवृद्धि भी समस्त अभिलषित सुखों का सङ्गम कराती है। जो लक्ष्मी के भले प्रकार आगगन को सूचना देनेवाली दूती है, और जिससे देव व मनुष्यों के मनोरथ पूर्ण होते है ॥ १४० ॥ विशेषता यह है कि है वीर नरेश ! तुम शत्रुओं की स्त्रियों के नैत्ररूपी चन्द्रकान्तमणि की जलप्रवाह शोभा में चन्द्र माने गए हो । अर्थात् जैसे चन्द्र के उदय से चन्द्रकान्तमणि से जलप्रवाह लक्ष्मी उत्पन्न होती है वैसे ही चन्द्र- सरीखे आपके उदय से शत्रु-स्त्रियों के नेत्र रूपो चन्द्रकान्तमणि से अनुवाक्ष्मी ( अजलप्रवाह शोभा ) उत्पन्न होती है। आग शत्रु-स्त्रियों के शरीर संबंधी प्रचुर शोकपी सूर्यकान्तमणि के उद्दीपन में सूर्य ही है। अर्थात् जैसे सूर्योदय से सूर्यकान्तमणि से अग्नि उद्दीपित होती है वैसे ही शत्रु-स्त्रियों के प्रचुर शोकरूपी सूर्यकान्तमणि को उद्दीपित करने में आप सूर्य हैं ।। १४१ || फिर जोति महाराज ने निम्न प्रकार विचार किया- 'कहीं तो हमारे ऐसे मानसिक दुर्दिलसित ( खोटे अभिप्राय ) और कहां यह पूज्य श्री सुदत्ताचार्य की मानी हुई कल्याण श्रेणी के निरूपण की तत्परता ? इसलिए यहाँ पर अपने सिर कमल से प्रस्तुत भगवान के चरणों की पूजा करनी ही इस पाप का प्रायश्चित्त है, अन्य नहीं । यशांभनि महाराज ने विशेष पराक्रम व वेमर्यादि किये जानेवाले साहस से बक प्रकार का अभिप्राय किया उसे जानकर प्रस्तुत मुनीश्वर ने निम्नप्रकार आदेश दिया- 'हे राजन् ! ऐसा मत करो । अर्थात् - इस प्रकार के विचार मन में मत लाओ। क्योंकि निश्चय से प्राणियों के चित्त स्वभाव से चञ्चलता के कारण समुद्र को तरों के जल सरीचे ऊँचे-नीचे विषयों में प्रवृत्ति करनेवाले ( नाना प्रकार के ) होते हैं, इसलिए दुरभिप्राय करने से कोई लाभ नहीं 1' तदनन्तर यशोमति महाराज ने नमस्कार पूर्वक क्षणमात्र निम्नप्रकार आश्चर्य करके भगवान् सुदत्त से पूछा - 'अहो भगवान् सुदत्त की बुद्धि, इन्द्रियों के अगोचर ( अविषय )
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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