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________________ १७२ यशस्तिलकचम्पूकाध्ये पारकल्लोलजलानीपोग्णाषचविश्वयवृत्तीनि भवन्ति । तबलं दुरभिनिवेशोन । पशोमतिमहारानः सशिरःकम्पम्-'अहो, भगवतरमतीन्द्रियेष्वपि . पहार्यद्वयेषु सातिशया दोसुषी' ति अगमानं विस्मिस्य भगवन्तमापपृच्छ-'भगवन, कि नाम मे मनो नुरभिनिवेशमध्यति । भगवान्क्वेस्पायाभयं तवाशयमुपाविशात् ।। कल्याणमित्रा-काश्यपीपसे, नंतपाश्चर्यम् । अयं हि भगवान्महद्धिसंपन्नतयाष्टाङ्गमहानिमित्तनिलयः सर्वावषिसमसाक्षात्कुतसकलवस्तविषयःकरतलामलमिव कालवयत्रिलोकोदर विवरवतिसमर्थमपि पवाधंसायं कलयति । तबन्यवेब किचिवेतसभासभाजनकर नष्टमुष्टिचिन्तालाभालाभसुखदुःखजीवितमरणजन्मान्तरगोचरमापृष्टयं । सितिपतिः (सानुनयम्)-'भगवन्, मम पितामहो यशोधमहाराजस्तावृश लोकोतरं चरित्रमापर्वेदानों किं नु ज लोकमध्यास्ते पितामही चन्द्रमतिः पिता यशोधरमहाराजोऽमृतमतिश्च माता। भगवान-'समाकणंप । रामन्यशीर्षनृपतिः पलितं विलोम निविध संसृतिमुखेषु मुनिबभूव । राज्ये मशोषरनपं तनयं निवेश्य तत्याज निस्पृहतया तृणवद्विभूतिम् ।।१४२॥ जैनागमोचितमुपास्य तपश्चिराय प्रायोपवेशनविधानधिमुक्तकायः । ब्रह्मोत्तरं विशवेक्षमाप्य मातस्तस्कल्पलेखपतिर तमासमेतः ।। १४३।। बाह्मपुत्रविषिना सह मात्रा तं यशोधरमपं विनिपारय । जातफुमरतिरङ्गविरामारपञ्चमं निरयमाप ताम्बा ।। १४४।। पदार्थों के रहस्यों के जानने में विलक्षणता रखनेवाली ( विशेष प्रवृत्त होनेवाली ) है।' 'हे भगवन् ! मेरी चित्तवृत्तिने कौन से दुरभिप्राय का आश्रय किया ?' ___ भगवान् ने उसका अभिप्राय, जिसमें 'कहाँ तो हमारे इस प्रकार के मानसिक दुविलासित ( खोटे अभिप्राय ) और कहाँ यह पूज्य श्री की अभिलपित कल्याण श्रेणी के निरूपण की तत्परता? उस कारण इस अवसर पर अपने शिरकमल द्वारा प्रस्तुत भगवच्चरणों की पूजा करना ही इस पाप का प्रायश्चित्त है, अनन्य नहीं' इन वाक्यों की अर्थ संगति वर्तमान है, निरूपण कर दिया। तदनन्तर 'कल्याणमित्र' नाम के वणिकस्वामी ने कहा-'हे राजन् ! इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। क्योंकि यह भगवान् निश्चय से गुरुदेशना से नहीं किन्तु महान् ऋद्धियों की संपन्नता ( युक्तता) के कारण अष्ट अङ्गों वाले महानिमित्तों के जानने का गृह (स्थान ) हैं और जो सर्वावधि प्रत्यक्ष ज्ञान द्वारा समस्त वस्तु समूह का प्रत्यक्ष ज्ञाता है। अतः ये तीन काल व तीन लोक के मध्यवती योग्य पदार्थसमूह को हस्ततल पर स्थित आंवले की भांति जानते हैं, अतः इन पूज्य सुदत्ताचार्य से दूसग ही विषय पूछना चाहिए, जो कि नष्ट, चोरी, चिन्ता, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवन, मरण व पूर्वजन्म इन विषयों से संबंध रखता हो एवं सभाजनों को प्रोतिजनका हो । अथानन्तर यशोमति महाराज ने विनयपूर्वक पूछा-'भगवन् ! मेरे पितामह ( पिता के पिता) यशोमहाराज वेसा अलोकिक चरित्र ( मुनिधर्म ) धारण करके इस समय निश्चय से किस लोक में निवास कर रहे हैं ? एवं हमारी पितामही ( पिता की माता) चन्द्रमति और मेरे पिता यशोधर महाराज तथा अमृतमति माता ये सब किस लोक में निवास कर रहे हैं ? __ भगवान् सुदनी में कहा-'सुनिए-हे राजन् ! यशोघं राजा शिर पर सफेद केश देखकर सांसारिक सुखों से विरक्त होकर मुनि हुए। उन्होंने अपने पुत्र यशोवर राजा को राज्य में स्थापित करके निःस्पृहता के कारण तृणसमान राज्यविभूति का त्याग किया ॥ १४२ ॥ पश्चात् उन्होंने चिरकाल तक जैनशास्त्र के योग्य तपश्चर्या करके सन्यास ( समाधिमरण ) संबंधी उपवास विधान द्वारा शारीर छोड़नेवाले होकर ब्रह्मोत्तर नाम के छठे स्वर्ग में प्राप्त होकर उस स्वर्ग के आश्चर्य जनक लक्ष्मी सहित इन्द्र हुए ॥ १४३ ।। कुबड़े के साथ रतिविलास करने वाली तुम्हारी माता ( अमृतमति ) विष
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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