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________________ पश्चम आश्वासः यशस्तिलक इति भवनमतीरिति व वंशोधित मातृदोहवाधिते चाभयचिरित्यभयमतिरिति च नामती । व्यतिक्रान्तवति च शेशये, जातपति व सकलकलामलिनोलावतारसरसिकमारपसि, सष सपस्माननेपिय समरिकमधिस्वति कुन्तलेषु कृष्णवे. तव पुणेष्विव विशालता प्रतिपन्नेषु लोधनेषु, तव सीव परिपूर्णवति वनमण्डले, तव वरिवर्ग इव शामतामाश्रितपति मध्यभागे, तव पराक्रमविर प्रकटतां गतेषु समस्तेष्वपि निम्नोन्नतदेवोष प्रवेश, अस्य खस्वभयरुचिकुमारस्य राजा करिष्यति भविष्यस्यां पलतो पुबराजकण्ठिकादधमिमां चाभयति राजपुत्रों भदारिको गस्पत्यहिन्यवापिपलये क्षत्रियायेत्पमात्यपरिवारवनितात्वाविर्भवन्तोषु जनश्रुतिष, स यशोमतिमहीपालः स्वयं करापितदेशेरडलामास: सह स्वगणिभिर्गोषषिषणपुरुषालापोल्लास्यमतिरेकवा पापविबुद्धचा विधीतविषयमनुसरंस्तत्सहरकूटोद्यानप्रसूमपरिभलाघ्राणचलितलाच मालियुगलस्तं सुवासभगवन्तमबललोके । नर्मसचिवकुमारोऽअमारः शितिपते, ठुष्करस्य मुनेश्वलोकनाव न भविष्यति पापतिः सफद्धिः । राजा मनागाविग्नमनाइचुक्षोभ । सत्राषसरे सुबत्तभगवदन्वनार्थमागतेन प्रणयप्रथयाथपेण कल्याणमित्रनाम्ना वैदेहकेचवरेण स विवापितिरेवमूचे-'राजन्, किमकाण्डे मन्पुमलिनमाननम् ।' अजमार:-राज अवस्था को, जिसमें पीन कुचकलशों की व्यवस्था तेलात होती है, अर्थात्-जिसमें नैलाभ्यङ्गन व मदनादि सौमन्त स्नान होता है, व्यतीत करके एवं प्रसूति-व्यचा का अवसर प्राप्त करके हम दोनों को वैमा उत्पन्न किया जैसे अमृत-मथन की बेला लक्ष्मी व चन्द्रमा को उत्पन्न करती है। फिर हम दोनों (पुत्र-पुत्री ) का 'यशस्तिलक' और 'मदनमति' ऐसा वंश के योग्य एवं 'अभयरुचि' और 'अभयमति' ऐसा माता के दोहला-धीन नाम संस्कार किया गया । अहो मारिदत्त महाराज ! जब हम दोनों का वाल्यकाल व्यतीत हो गया और जब समस्त कलारूपी कमलिनी श्रेणी के अवतरण के लिए सरोवर-सा कुमारकाल प्राप्त हुआ उस समय जब हम दोनों के केशों में कूष्णता (श्यामता वैसी विशेष रूप से अधिरूढ ( प्राप्त ) हुई जैसे आपने यात्रु-मुखों पर कृष्णता(म्लानता) विशेष रूप से अधिरूढ होती है। जब हम दोनों के नेत्र से विशालता ( दीर्घता ) प्राप्त किये हुए थे जैसे आपके गुण (प्रताप-आदि) विशालता ( महत्ता ) प्राप्त करते हैं। जब हमारा मुख-मण्डल वैसा परिपूर्ण हो गया जैसे आपका यश परिपूर्ण । समस्त पृथिवी मण्डल में व्याप्त ) होता है। जब हमारा मध्यभाग ( कमर ) वैसी क्षामला ( कृशता ) प्राप्त कर चुका था जैसे आपका शत्रु-समूह क्षामत्ता ( विनाश ) प्राप्त करता है और जब हमारे नीचे-ऊँचे स्थानवर्ती शारीरिक प्रदेश ( हस्त-पाद-आदि अवयव ) बैसे प्रकट हो चुके थे जैसे आपके पराक्रम प्रकट होते हैं एवं जब यशोमति महाराज अभयरुचि कुमार के [ गले पर ] आगामी प्रतिपदा को दा को बेला में यवराजपद की कण्ठो बांधेगे और राजकमारी अभयमति वां अद्विच्छन्न देश के स्वामी क्षत्रिय राजकुमार के लिए देंगे' मन्त्रियों के परिवार को स्त्रियों में ऐसी जन अतियों ( किम्बदन्तियांअफवाह प्रकट हो रही थों-पुताई पड़ रही यों तक एक समय शिकार खेलने को बुद्धि में यशामति महाराज ने, जिसने स्वयं हस्त से शिकारी कुत्तों को जंजोर श्रेणी धारण की है, जिसकी बुद्धि सेवक जनों के साथ वार्तालाप करने से आनन्दित हो रही है एवं जो कनों के रक्षक मनुष्यों के साथ जंगल के क्रीडावन में कर रहा है तथा जिसकी नेत्रपंक्ति का जोड़ा सहस्रकूट मन्दिर के बगीचे के पुरूषों की सुगन्धि के सूंघने से चञ्चल हुए हैं, श्री पूज्य सुदत्ताचार्य को देखा। उस समय 'अजमार' नाम के नमंसचिव । विदुषक । कुमार ने कहा-'हे राजन् ! कष्टदायक इस मुनि के दर्शन हो जाने से आज शिकार सफल वृद्धि वाली नहीं होगी।' [ उक्त बात को श्रवण कर ] यशोमति महाराज कुछ उद्विग्न चित्त होते हुए मन में मुनि से क्षुब्ध क्रुद्ध हुए। इसी अवसर पर श्रीसुदत्त भगवान् को वन्दना के लिए आये हुए और भक्ति व विनय के आश्रम 'कल्याणमित्र' नाम के वणिक् स्वामी ने यशोमति महाराज से ऐसा कहा-'हे राजन् ! बिना अवसर के आपका मुख शोक से म्कान (कान्ति-हीन) क्यों हो रहा है ? २२
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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