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________________ २७४ यशस्तिलकचम्पूकाव्य बलि:-'स्वामिन, कोऽयं स्वर्गापवर्गाप्सित्यसंग्रहे देवस्य दुराग्रहः, यतो द्वावशावर्षा स्त्री पोडशवर्षः पुरुषः । तमोरन्योन्यमानन्यसामान्यनहरसोरसेकप्रादुर्भूति: प्रीतिः प्रत्यक्षसमविसर्गस्वर्गीन पुनरवृष्टः कोऽपीष्ट: स्वर्गः समस्ति ।' गुणभूरिः सरि:--'सकल प्रमाणबसे ३ बले, कि प्रत्यक्षताधिकरणमेकमेव प्रमाणं समस्ति ।' नास्तिकेन्द्रमनोरथरषमातलि बलि:-'मजिलश्रुतधरोबाराचिपुरुषविदुन', एकमेव । भगवान्-'कथं तहि भवतः मित्रोविवाहायस्तित्यतनम्। कथं वा सवाश्यानां श्यानामस्थितिः। स्वयम प्रत्यक्षप्रमेयत्वावाप्तपुरषोपदेशाभिती स्वक्षपरिक्षतिः परमतोसवकृतिश्च । बलिभट्टो भट्ट इवेंतस्तमितो मबोत्कटः करटोति संकटं प्रघट्टकमापतितः परं *राभाजनसमा जनकरमुत्तरमपश्यन्नश्लील मसभ्यसर्ग निर्गलमार्ग किमपिसं भगवन्तं प्रत्युवाच क्षितिपतिरतोषमावा विक्षिप्तवीक्षणों गामी करनेवाले उसने नत व विद्या में निर्दोष पूज्य अकम्पनाचार्य के लिए यथाविधि नमस्कार किया और एक नीचे आसन पर बैठ गया। आग्रहपूर्वक स्वर्ग व मोक्षस्वरूप के विचार में तत्पर हुए उसने उक्त आचार्य द्वारा प्रशस्त धर्म वाली धर्म कथा विस्तारित की। उसे सुनकर पुण्य कर्मरूपी बाँस के विदारण करने के लिए भंवरा-सरी बलि मन्त्री ने कहा-'हे स्वामिन् ! स्वर्ग व मोक्ष का अस्तित्व मानने का आप दुराग्रह क्यों करते है ? क्योंकि बारह वर्ष की स्त्री और सोलह वर्ष के पुरुष को परस्पर में असाधारण प्रेमरस को वृद्धि को उत्पत्ति वाली प्रीति ही प्रत्यक्ष-प्रतीत स्वर्ग है, उससे भिन्न कोई दूसरा अदृश्य व अभिलपित स्वर्ग नहीं है।' गुणों से बहुल आचार्य ने पाहा-'वाद-विवाद के कलह-सहित और प्रमाण-पूजक बलि ! क्या एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है? नास्तिकों में इन्द्र-सरीखे चार्वाक के मनोरथरूपी रथ के संचालन के लिए सारथि सरीखे वलि ने कहा समस्त मास्त्ररूपी पृथिवी का उद्धार करने में आदिपुरुष सरीखे हे विद्वन् ! 'हो केवल एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। आचार्य--'यदि आप केवल प्रत्यक्ष प्रमाण ही मानते हो तो आपके माता-पिता के विवाह-आदि की सत्ता कैसे सिद्ध होगी ? अथवा तुम्हारे वंश में उत्पन्न हुए अदृश्य पूर्वजों की सत्ता कैस सिद्ध होगी? उनकी सिद्धि के लिए यदि आप कहेंगे कि प्रमाण द्वारा जानने योग्य उक्त पदार्थ हैं अवश्य, परन्तु वे प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा जानने योग्य नहीं है, अतः वे आप्त पुरुष के उपदेश (आगम प्रमाण ) की अपेक्षा करते हैं, तब तो आपके पूर्वपक्ष को हानि होती है, अर्थात्-'वस्तु की स्थिति का साधक केवल प्रत्यक्ष प्रमाण ही है, अन्य नहीं' आपका यह सिद्धान्त खण्डित होता है और स्थाद्वाद-दान की सिद्धि होती है, क्योंकि आपने प्रत्यक्षा प्रमाण के सिवाय आगम प्रमाण भी मान लिया। इसके बाद बलि नाम का विद्वान मंत्री मुख-सरीखा होकर 'यहाँ पहाड़ की भीट है और वहाँ मदोन्मत्त हाथी है किस मार्ग से जाऊँ ? उसकी तरह दु:ग्स-प्रकार को प्राप्त हुआ और जब सभा के सदस्यों को प्रीतिजनक उत्तर न दे सका तब वह आचार्य से अश्लील, व उच्छृखल मार्गवाला एवं दुष्टजनों के योग्य वचन बोल उठा । १. निश्चमः । २. गह, कलिना यतसे । ३, प्रमाणे वलिः पूजा यस्य सः । १. सारथिः । ५.विदुषो मुघस्तस्य संबोधन हे मुने । ६. शानं प्रमाणं, ज्ञानेन यद्वस्तु ज्ञायते तत्प्रमयं, तनु सवाप्रत्यक्षं तेन ते वस्तूनामवस्थितिनं । ७. सत्यां । ८. पूर्वपक्षस्य हानिः । ९. अविद्वान् । *. 'पर सभाजनकरमुत्तर ० । १०. प्रीतिकरं । ११. अथव्यं । १२. मजा ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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