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________________ षष्ठ आश्वास सम्मानसर्गावकः प्रल्लावक: मतान्न परं तत्वं न येवः शमशस्परः । शंववास्थास्परं मास्ति भक्तिमुक्तिप्रद पवः ॥ २२२ ।।' तथा नास्तिश्याधिपधारयवाचस्पत्ती शुक्रगृहस्पती मपि रासे स्वप्रतिक्षा विज्ञापयामासतुः । मनागन्तभितमतिः क्षितिपतिः-'अहो दुर्जनताललालमनकुजाः द्विजाः, कि ममं पुरती भवतो भारती प्रगल्भते । किवा बुधप्रवेकस्प" लोकस्यापि । सनीतिवसुमतीसिदारणालि बलि: .... "इम्मापास, ममि तवाममोलोस्कर्षविषये संध्यं ममः, तरास्ता तावदम्यत्तशास्त्रप्रवीणपज्ञः परः प्राजः । किन्तु सर्वज्ञस्यापि "मादेवदि पुरस्तात्परिग्रहीतविद्यानवधा एव ।' स्थिरप्रकृतिः क्षोमीपतिः–'यहोवं शूराणां कातराणां च रणे व्यक्ति षष्यति' इत्यभिषामानन्ददुन्दुभिरवोपा जितपरिजनपूजोपकरणो विजयशेखरं नाम करिणमारहान्तःपुरानुगमग्रामोऽतिवाझ" वाह्यानगरमार्गमुपगतारामसीमसंसर्गः, ततः करिभोवतीय गीतार्यवेवरिकरः कतिपयाप्तपरियारपुरःसरस्तं वतषिद्यानपणं भगवन्तं यथावाभिवन्ध समाचरितनोचासनपरिग्रहः सविनयापहं १०वर्गापवर्गस्वरूपनिरूपापरायणः सद्धमंसनायां फयां प्रथयामास' । सत्कर्मवंशभिलि सन्मार्ग की सृष्टि का उच्छेद करनेवाले प्रह्लादक मंत्री ने कहा-'अद्वैत से महान् दुसरा कोई तत्व नहीं है, शङ्कर से उत्कृष्ट दूसरा कोई देवता नहीं है और येव शास्त्र से बढ़कर दूसरा कोई मुक्ति ( सोसारिक भोग' ) व मुक्ति को देनेवाला शास्त्र नहीं है ।। २२२ ।।' विशेष नास्तिक दर्शन के वचन बोलने के लिए बृहस्पति नाम के दो मन्त्रियों ने भी ग़जा के लिए अपने सिद्धान्त विज्ञापित किये गमझाए । फिर कुछ चित्त में कोप से कलुषित बुद्धिवाले राजा ने कहा--'अहो दुष्टतारूपी लता के आधारदान में वृक्ष-सरीखे माह्मणो ! क्या मेरे ही सामने आपकी वाणी बोलने में समर्थ होती है ? या महाविद्वान् लोक के सामने भी आपको वाणी बोलने में समर्थ होती है ?' पुनः प्रशस्त नीतिस्पो पथिवी के विदारण के लिए महान् हल-सरीखा बलि बोला-'हे पृथिवी पालक ! यदि हमारी बुद्धि की महत्ता के विषय में आपका मन ईन्या-युक्त है तो शास्त्रों के अभ्यास से प्रवीण बुद्धिवाले विद्वान् की तो बात ही क्या है। यदि हम लोगों के सामने सर्वज्ञ ही वादी होकर शास्त्रार्थ करले उपस्थिल हो जाय तो उसके सामने भी हमारी विद्या निर्दोष ठहरेगी। 'यदि ऐसा है तो शूरवीर और कायरों को परीक्षा रण में ही होगी।' ऐसा कहकर स्थिर स्वभाव-बाला राजा आनन्द दुन्दुभि की ध्वनि के साथ अनुचर-वर्ग व पूजा के उपकरण प्राप्त करता हुआ व अन्तःपुर का सहगमन न रोककर विजय शेखर नाम के हाथी पर बड़कर चल दिया और नगरी के बाह्यमार्ग का उल्लङ्घन करले मुनि के उद्यान की सीमा का संग प्राप्त करते ही हाथी से उत्तर पड़ा और शिष्ट पुरुष का बेष ब कुटुम्बी जनों को ग्रहण करनेवाले एवं कुछ हितैषी अनुचर-वर्ग को अग्र १. एकान्तात् किन्तु सर्वर्थकान्नमेष बस्नुतत्वं । २. वो मन्त्रिणी। ३. मन्त्रिणः प्रति प्राह । ४. मुख्यस्य । ५. महाबलं । ६ भूः। ७. वादिनः । ८. गगने मति अनिषेध्या राजा। ९. बाहा, महिनगरमार्गमतिवाट अतिक्रम्य संप्रासमुनिवनसीमसंगः सन् गजादुत्तीर्य । १०. राजा । ११. मुनिना कृत्वा विस्तारयामास । १२. प्रभेवनअमरः टि० च । णुस्तत्र प्रभित् भेदन अलिभ्रमरः प्राह । टि: ( ख )।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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