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________________ अपम आश्वासः ४५५ देवाल्ल पनं पपर्वत' समपाधिते । एको मुनिर्मधल्लम्मो न लभ्यो वा मयागमम् ॥३६४॥ अस्थावरजनप्रायः समयोऽयं जिनेशिनाम् । नकस्मिन्युष तिष्ठेडेकस्तम्भ हवालयः ॥३६५।। २ मामस्थापनावष्णभावन्यासंश्चतुविषाः । भवन्ति मुनयः सः रानभानाविकर्मम् ॥३६॥ उत्तरोत्तरभावन विधिस्तेषु विशिष्यते । पुण्याअंने गृहस्थाना मिना तिकृतिविव' ।।३६७॥ *अतनगुणेषु भावेषु व्यवहारप्रसिद्धये । परसंशाकर्म सन्नाम नरेच्यावशावर्तनात् ।।३६८॥ साकारे वा निराकारे कालावी पग्निवेशनम । सोऽयमित्यवधान* त्यापमा सा- निगद्यसे+॥३६॥ गहस्यों को उनकी विशेष पूजा करनी चाहिए ।। ३६३ ॥ भाग्यशाली पुरुषों को भाग्य से प्राप्त हुए धन को जैन धर्मानुयायिओं में अवश्य खर्च करना चाहिए भले ही उन्हें सागमानुकूल कोई मुनि मिले अथवा न भी मिले ।। ३६४ ।। जिनेन्द्र भगवान् का यह धर्म उत्तम और जघन्य अनेक प्रकार के मनुष्यों से भरा हुआ है। जैसे गृह एक खम्भे पर नहीं ठहर सकता वैसे यह धर्म भी एक पुरुष के आश्रय से नहीं ठहर सकता ।। ३६५ ।। मुनियों के चार भेद नाम, स्थापना, द्रव्य व भावनिक्षेप की अपेक्षा से मुनि चार प्रकार के होते हैं और वे सभी दान व सन्मान के योग्य हैं ।। ३६६ 11 गृहस्थों के पुण्य-उपार्जन की दृष्टि से जिनबिम्बों की तरह उन चार प्रकार के मुनियों में उत्तरोत्तररूप से विशिष्ट विधि ( विशेष दान व मानादि ) होती जाती है। अर्थात्-जिसप्रकार नामजिन से स्थापना जिन विशेष पूज्य हैं और स्थापना जिन स नावा जिन विशेष पूज्य है और मोमिन नपजिन विशेष पूज्य हैं उसीप्रकार नाम मुनिसे स्थापना मुनि-आदि विशेष पूज्य हैं ।। ३६७ ।। [अब क्रमश: चारों निक्षेपों का स्वरूप निर्देश करते हैं नामनिक्षेप नाम के अनुसार गुण व क्रिया-आदि से रहित पदार्थों में लोक व्यवहार चलाने के लिए पुरुष के __ अभिप्राय को अवलम्बन करके जो नाम रक्खा जाता है उसे नाम निक्षेप कहते हैं ॥ ३६८ ।। स्थापनानिक्षेप तदाकार व अतदाकार काष्ठ बगैरह में 'यह अमुक है' इमप्रकार के अवधारण से जो स्थापना की जाती है, वह स्थापना निक्षेप कहा जाता है ॥ ३६२ ।। १. टुप वीजतन्नुरांताने । २. मुनयः । ३. प्रतिमावत । ४. तथा चाह पूज्यपाद:-'अतद्गुणे वस्तुनि मंत्र्यवहारार्थ पुरुषाकारान्नियुज्यमानं संशाकर्म नाम' 1-सवार्थ०१-५ । तया चाह श्रीमद्विद्यानन्दिस्वामो--'मंजाकर्मानदयव निमित्तान्तरमिस्तिः । नामानकायच लोकव्यवहागय मुनितम् | १ ||---तत्वार्थश्लोकवात्तिक १-५ प० २८। *. अवधारणेन । +, तथा चाह पूज्यपाद:- 'काष्ठापुस्तचित्रकर्माक्षनिक्षेपाविषु सोऽयमिति स्पाप्यमाना स्थापना' । सवार्थ १-५ । सथा चीनं श्रीमझ्यिागन्दिस्वामिना'वस्तुनः कृतसंज्ञस्य प्रतिष्ठा स्थापना मता । सद्भावतरभेदेन द्विधा तत्त्वाघिरोपतः ॥ ५४॥ -तस्वापरलोकवात्तिक १० १११
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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