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________________ ४५६ অক্ষিকা 'आगामिगुणयोग्योऽर्थो व्यन्यासस्य गोचरः । तत्कालपर्ययाफ्रान्तं वस्तु भावो विधीयते ॥३७०।। यबास्मवर्णमप्राय क्षणिकाहार्य विभ्रमम् । परप्रत्ययसंभूतं दानं साजसं मतम् ।।३७१॥ 'पात्रापात्रसमावेश्यामसाकारमसंस्तुतम् । वासभत्यकृतोद्योग वानं तामसमुचिरे ॥३७२।। आप्तिधेयं स्वयं मत्र यत्र पात्रपरीक्षणम् । गुणा: श्रद्धादयो यत्र वानं तस्सास्थि विदुः ॥३७६।। उत्तम सात्विकं वानं मध्यम राजसं भवेत् । वानानामेक सर्वेषां जघन्यं तामर्स पुनः ॥३७४।। द्रव्य व भाव निक्षेप जो वस्तु भविष्य में होनेवाले गुणों की प्राप्ति के योग्य है, उसे वर्तमान में उस गुणरूप से संकल्प करना द्रव्यनिक्षेप है और वर्तमान पर्याय में स्थित हुई वस्तु का भाव निक्षेप कहत हैं । अर्थात्-वर्तमान कालान गुण व पर्याय विशिष्ट पदार्थ को भावनिक्षेप कहते हैं ।। ३७० ॥ [ अब दूसरी तरह से दान के तीन भेद बतलाते हैं राजसदान जिस दान में अपनी प्रशंसा की बहुलता पाई जाती है और जो सत्काल मनोज्ञ प्रतीत हो, अर्थात्जिसे दाता प्रतिदिन नहीं देता, कभी कभी देता है; अतः जो क्षणभर के लिए मनोज है, एवं जो दूसरे दाता के विश्वास से उत्पन्न हुआ मान--जिय माता को समय तो मान पर विश्वास नहीं होता, अतः किसी को दान से मिलनेवाले फल को देखकर जो दान दिया जाता है, वह रजोगुण की प्रधानता के कारण राजसदान माना गया है ।। ३७१ ॥ नामसदान आचार्यों ने उस दान को तामसदान कहा है, जिसमें पात्र व अपात्र दोनों एकसरोखे माने जाते हैं और जो बिना किसी आदर-सत्कार व स्तुति के दिया जाता है और जिसमें दास व नौकरों के उद्योग की अपेक्षा होती है ।। ३७२ ॥ माविक दान जिसमें स्वयं पात्र को देखकर स्वयं उसका अतिथि-सत्कार किया जाता है, और जिसमें दाता के श्रद्धा-आदि गुण पाये जाते हैं, बिद्वानों ने उम दान को मात्विक दान माना है ।। ३७३ ।। इन तीनों दानों के १. तथा चाह-श्रा भट्टाकलदेवः-'अनागतपरिणामविशेष प्रनि गृहाताभिमुख्यं द्रव्यं तत्वार्थवातिक १-५ । तथा चोक्तं श्रीमद्विद्या.न्द्रिस्वामिना'यत्स्वतोऽभिमुना वस्तु भविष्यत्यययं प्रति । तद् द्रव्यं द्विचित्रंशय मागमेतरभंदन. ।।१०।। -तुन्वार्थश्लोकवानिया पृ.१११ । २. 'तथा चाह श्रीमत्सूज्यपाद:-'वर्तमानतापर्यायोप लक्षित प्रव्यं भावः' । सबार्श० १-५ । तथा चाह श्रीमद्वियानन्दस्वामो-'सांप्रती वस्तुपर्यायो भावो वेंधा स पूर्ववत् । -तत्वार्थश्लाकावात्तिक पृ. ११३ । ३. कदाचित् ददाति । ४. स्वचित्ते दानस्य विश्वासो नास्ति, परन्तु सस्पविद् दानस्य फलं दृष्ट्वा अनेन ईदृशं पार पश्चाद् ददाति । ५. सदृशावलोकनेन यद्दानं। ६. अतिथौ भवं । ७. तया चाक्नं-'यत्रातिधेयं स्वयमेव साक्षात् ज्ञानादयों या गुणाः प्रकाशाः । पात्राद्यवेक्षापरता च यत्र तत्सात्विकं दानमुपाहरन्ति ।।७८।। -धर्मरत्ता. . १२७ ॥
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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