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________________ ४५४ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये लोकवित्वकविश्वाविवाग्मित्वकोशलः । मार्गप्रभावनीयुक्ताः सन्तः पूग्या विशेषतः ॥३५७॥ मान्य ज्ञान तपोहो जानहोनं तपोऽहितम् । पूयं पत्र स देवः स्याद्वितीनो गणपुरण:* ॥३५८॥ अहंजवेप्रमोस्त स्याद्विरतौ विनयक्रिया। अन्योन्यक्षल्ल थाहमिच्दाकारबधः सदा ॥३५९॥ अनौचिवची भावं सदा ज्यारिसन्निधौ। यथेष्ट हसनालापावयेक प्रसंनिधौ ॥३६॥ भक्तिमात्रप्रवाने हि का परीक्षा तपस्विनाम । ते सन्तः सात्वसन्तो या गहौ बानेन शचति ॥३६॥ सर्वारम्भप्रसाना गृहस्थानां धनव्यपः । बहुधास्ति ततोऽस्यर्थ ग कसंख्या विचारणा ||३६२॥ यथा या मशियन ने पान यानि . सातचापि पूस्ता मुनयो गृहमेषिभिः ।। ३६३॥ लिए जनेतर ज्योतिषी-आदि से पूछने पर अपने धर्म की उन्नति केगे हो सकती है ? ॥ ३५४ । पुण्य के संचय करने में निपुण श्रावकों को, मूल गुणों व उत्तरगुणों के कारण श्लाघनीय--प्रसासनीय-तपों के द्वारा जिसको स्थिति मुनि-धर्म में दृढ़ है, ऐसे साधु की मन, वचन व काय से पूजा करनी चाहिए ।। ३५५ ।। जो ज्ञानकाण्ड ( न्याय व व्याकरण-आदि ) और क्रियाकाण्ड में निपुण होने से चतुर्विध संघ ( मुनि, ऋपि, यति व अनगार में अग्नेसर होने हैं और जो संसाररूपी समुद्र से पार उतारने में नौका सरीखे हैं, उन आचार्यों की अर्हन्त भगवान् की तरह पूजा करनी चाहिए ।। ३५६ ।। लोकव्यवहार को निपुणता व कवित्व ( काव्य रचना को चतुरता) द्वारा और शास्त्रार्य एवं वक्तृत्व कला के कौशल द्वारा जैनधर्म को प्रभावना करने में तत्पर रहनेवाले सज्जन पुरुष ( चाहे गृहस्थ हों या मुनि हो ) दान व सन्मानादि द्वारा विशेषरूप से भावार्थ-जैनधर्म को उद्दीपित्त करने के लिए लोक-व्यवहार में निपुण, काव्यरचना में कुशल, शास्त्रार्थ करने में प्रवीण विद्वान् और तात्विक, मधुर व प्रभावशाली भाषण देने में कुदाल विद्वानों की अपेक्षा रहती है, अतः उनका भी सन्मान करना चाहिए ।। ३५७ ॥ तप से रहित ज्ञान भी पूज्य है और ज्ञान से होन तप भी पूज्य है, किन्तु जिसमें ज्ञान ( केवलज्ञान) और तब दोनों हैं वह देव है, जिसमें दोनों नहीं हैं, वह तो केवल संघ का स्थान भरनेवाला हो है ॥ ३५८ ।। विनय-विधि-जिनमुद्रा के धारक साधुओं को नमोऽस्तु कहकर उनकी विनय करनी चाहिए। आयिका के प्रति वन्दे कहकर उसकी विनय करनी चाहिए और शुल्लक त्यागी परस्पर में एक दूसरे को मदा इच्छामि कहकर बिनय करते हैं ॥ ३५९ ।। आनार्य-आदि पूज्य पुरुषों के समक्ष सदा बास्त्रानुकूल निर्दोष वचन बोलना चाहिए और गुरुजनों के समोग स्वच्छन्दतापूर्वक हंसी-मजाक नहीं करनी चाहिए ।। ३६० ।। केवल आहारदान के लिए साधुओं की परीक्षा, कि ( ये आममानुसार मुनियों के आचार को पालते हैं अथवा नहीं इस प्रकार का विचार ) नहीं करनी चाहिए, चाहे वे सच्चे मुनि हो या झूठे, क्योंकि गृहस्थ तो दान देने से शुद्ध होता है ।। ३६१ ॥ क्योंकि समस्त प्रकार के कृषि व व्यापार-आदि उद्योगों में प्रवृत होनेवाले गृहस्थों का धन अनेक प्रकार से (लज्जा व भय-आदि) खर्च होता है अत: तपस्वियों के लिए आहार दान देने में विशेष परीक्षा नहीं करनी चाहिए ॥३६२॥ तपस्वी साधु जैसे-जैसे तप व ज्ञानादि गुणों से विशिष्ट हों, बेहो-वैसे १. पूजितं 1 *, तया चोक-'मान्मो बोधस्तपोहोनो घोषहीनं तपो हितम् । द्वयं यत्र स देवः स्यात् द्रिहीनो प्रतवेष मृत् ॥ ४६ ।' -प्रबोधसार पृ० २०२१ २. 'मागमानुसारि दि० ख०, घ. २०, 'अनुवीचि अनुल्वर्ण' इति पसिकाकारः।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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