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________________ अष्टम आश्वास: भयलोभोपरोपायैः कुलिङ्गिषु मिषेषणे । अवश्य दर्शनं म्लापेन्नीचरावरणे सति ।।३४९११ चुद्धिपौरुनयुक्तेषु देवायसविभूतिषु । नषु फुत्सितसेवायो बन्यमेवातिरिच्यते ।।३५० ।। समयी साधकः साधुः सूरि: समयदीपकः । तत्पुन: पञ्चधा पात्रमामनन्ति मीषिणः ॥३५१॥ गृहस्यो वा पतिर्वापि मनं समयमास्थितः । पयाकासमनुप्राप्त; पूजनीयः सुवृष्टिभिः ।।३५२॥ ज्योतिर्मन्त्रनिमित्तानः सुमनः कायकर्मसु । माग्यः समथिभिः सम्पपरोक्षार्य समयंधीः ॥३५३ ।। दीक्षायात्राप्रतिष्ठामा क्रियास्तविरहे' कुतः । तदर्थ परपृष्ठायां कथं च समयोन्नतिः ॥३५४|| मूलोत्तरगुणगलाध्यस्तपोभिनिन्ठित्तस्थितिः । माधुः साप भरपूज्या पुण्योपार्जनपत्रिततः ॥३५५॥ मानकाण्डे क्रियाका चातुर्वर्ण्यपुरःसरः । धरिदेव इचाराध्यः संसाराषितरण्डकः 11३५६।। दुराग्रही होने से मलिन है, ऐसे लड़ाई झगड़े को नौबत आ जाती है, जिसमें दण्डादण्डी और एक दूसरे के बाल पकड़ कर खींचने का अवसर होता है ।। ३४८।। ___ जब विवेक-होन मानव किसी मनिष्ट के भय से या धनादि के लोभ से या दूसरों के आग्रह से कुलिनी साधुओं की सेवा रूप नीच आचरण करता है तो उसका सम्यग्दर्शन अवश्य ही मलिन होता है ।। ३४९ । जब बुद्धिमान् व पुरुषार्थी धार्मिक पुझा यह समझ लेता है कि 'धनादि विभूतियाँ भाग्याधीन होती हैं, तो भी धन की चाह से नीचों की सेवा करता है, इसमें उसकी दौनता ही कारण है ।। ३५० ॥ [ अब अन्य तरह से पात्रों के पांच भेद और उनका स्वरूप कहते हैं ] विद्वान् पुरुष निम्न प्रकार पांच प्रकार के पात्र मानते हैं-समयी, साधक, साधु, सूरि (आचार्य) और समय-दीपक ( जैनशासन की प्रभावना करनेवाला ) || ३५५ ।। जो जैन धर्म का अनुयायो है, चाहे वह गृहस्थ है या साधु, जव योग्य समय में प्राप्त हो जाय तो सम्यग्दृष्टि सज्जनों को उसका आदर-सरकार करना चाहिए ॥ ३५२ ।। जिनकी बुद्धि परोक्ष वस्तु को भली प्रकार जानने में समर्थ है, ऐसे ज्योतिष, मन्त्र व निमित्तशास्त्र के ज्ञाताओं का और शारीरिक चिकित्सा में निपुण व परोक्ष व्याधि का ज्ञाता वैन का अथवा पाठान्तर में प्रतिष्ठा आदि के ज्ञाता का साधर्मी जनों को सन्मान करना चाहिए। ३५३ ।। क्योंकि यदि ज्योतिषो-आदि नहीं हैं तो जिनदोक्षा, तीर्थयात्रा और जिनबिम्ब-प्रतिष्ठा आदि क्रियाएं कैसे हो सकती हैं ? क्योंकि इनमें मुहूर्त-आदि देखने के लिए ज्यातिषी व चैमित्तिक को अपेक्षा होनी है। यहाँ पर यदि यह कहा जाय कि जेनेतर सम्प्रदाय में भी ज्योतिषी व निमित्तज्ञानी आदि हैं उनसे काम चल जायगा किन्तु इस तरह मुहूर्त आदि के १. आग्रह । २. सेवायां सत्यां । *, तपा चाह थी समन्तभद्राचार्यः 'भयापास्नेहलोभाच्च कुषागमलिङ्गिनाम् । प्रणाम विनयं चैव न फुयुः शुद्धदृष्टयः ॥ ३०॥-रएन. श्रा० । ३. सथा चोतं विदुषा आशावरेण.... 'समयिकसारफसमयद्योतकनैष्ठिकगणाधिपान् धिनुयात् । दानादिना प्रयासरगुण रागात् सद्गृही नित्यम् ।। ५५ ।।सागार०, अ० २। ४. सामयिक, साधक, नैष्ठिका, गणाधिप व प्रभावक । ५. 'वैद्यः' टि० ख०, पञ्जिकाकारस्तु 'कायकर्म चिकित्सादिक्रियास' इत्याह। ६.देहान्त:स्थितो व्याधिः परोक्षार्थः । ७. मितवं दिना। 2. काण्डो. उनलेनमे वर्ग दुष्कन्धे मरे भने सहरलाघापु स्तंबे ।।' टि० खा, 'काण्डोऽस्त्री वर्मबाणार्थनालानसरवारिषु । दण्ठे प्रकाण्डे रहसि स्तंचे फुत्सितकुत्सयोः ।। इति विश्वः ।' अर्थत-कागड-वर्ग ( विषयसमाति), बाण, अर्थ, मार, मंडी, अवसर, जल ।। २ । दण्ड ( रंडा ), वृक्षका स्थलमाग, एकान्त, गुच्छ, निन्दित, निदा। ( पुं० न० ) विश्वलो. को०१०९० से संकलित-सम्पादक
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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