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________________ ३६ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये त्वमेषमसि मध्यस्मो थदेवमसको वस्तुनि बेहिनः स्नेहयसि । मुधा व तक्मतिवारुणकर्मणो धर्म इति प्रसिद्धिः । अहो, कमिव लोकस्याहार्यगुणरमणीयताधुषि वपुषि शुनः स्वतासुक्षतसोहितपरिष्वरले शुष्के कोकस इव तर्षः । अताम्धूलमुख हघुपानकरनिकेतनमिव करोति महोदव घिसस्य । अनुपनीतं हि वक्षः स्फुटितपिण्डगण्डमिय महतीं करोति विचिकिसामन्तःकरणस्य । अविहितसंस्कारं हि शिरः क्षणादेव भवति गोगर्मुनिवारणावपि कष्टतरम् । मनागेवोपेक्षितसृष्टिः शरीरयष्टिश्चर्मकरवृतिरिव विवाति पियनसमासनचरम् । अरे, हत्तपत्त वित्त, कामव त्वमत्र प्राप्तसंसारफलमिवा. मिनिविशसे । प्रसरमालभम्गमं प्राणव्यवैरपि गन्तमिजासि. विष्पमान परिमुषितप्तस्वमिव ताम्यसि. अनुष्यामानं महराहीसमिवात्मानं विषमसि । महो, किमिवमस्य जगतो महान्ध्यं यवनिधामस्यातासारतामवयुद्धधमानमपि भकरिव ___आश्चर्य है मैं सोचता है कि कहां यह पूर्व में होनेवाली काहने के लिए अशक्य मेरे मन की सन्ध्याकालीन मेघ-सरीखी रामकलुषत्ता और कहाँ इस समय होनेवाली चित्त की बैसी निर्मलता जैसे खेत द्रव्य के जल से प्रक्षालित हुमा वस्त्र निमल (शुभ्र ) होता है । कहाँ पूर्व में होनेवाली जाल में पड़े हुए पक्षो-सरीखी मेरी मेत्र-मपलता और कहा इस अवसर पर होनेवाली वज्र द्वारा कोलित हुई-सी मेरी चक्षु-निश्चलता । हे पापिष्ट विधे! क्या तुझे दूसरा कोई भी घात करने का उपाय नहीं था, जिससे तुम अमृतमति देवी को इस प्रकार का लोभ दिखाकर वशीभत करके मान-सरीखे प्राणियों का घात करते हो। निस्सन्देह आप कैसे मध्यस्थ हो ? जिससे ऐसे अतुल्य पदार्थ में प्राणियों को स्नेह युक्त करते हो। ऐसा होनेपर विशेषरूप से हिंसा करनेवाले आपकी 'धर्म ऐसी ख्याति झूठी है। आश्चर्य है किस प्रकार से विवेक-हीन लोक को सुगन्धित वस्त्रादि के संयोग से मनोज्ञता को पुष्ट करनेवाले शरीर में वैसी तृष्णा कैसे हो रही है ? जैसे कुत्ते को आपनी तालु में हुए व्रण से उत्पन्न हुए रक से आर्द्र ( गीली } हुई नीरस हड्डी में तृष्णा होती है। जैसे चमड़ा बेचनेवाले (चमार) का गृह चित्त को दुःखित करता है वैसे ही ताम्बूल मे रहित हुआ मुख महान् दुःख उत्पन्न करता है। जैसे शरीर का व्रणस्फोट ( पका हुआ फोड़ा) विशेष घृणा उत्पन्न करता है वैसे ही संस्कार ( प्रक्षालन-क्रिया) हीन नेत्र चित्त में विशेष घृणा उत्पन्न करता है एवं निश्चय से संस्कार-हीन ( तैलमर्दन-आदि क्रिया से होन) हुआ मस्तक तत्काल ही डांस-मच्छड़ को निवारण करनेवाले पंखा से भी मिन्धतर प्रतीत होता है। यह शरीर-यष्टि योड़ी-सी हो संस्कारों ( स्नान-आदि क्रिया) से उपेक्षित हुई । होन हुई) वेसी निकटवर्ती पुरुष को नाक बन्द करनेवाली कर देती है जैसे चमार की चमड़े को मशक निकटवर्ती पुरुषको नाक बन्द करनेवाली कर देती है। अरे दुरात्मन् नष्ट आचरण-शील मन! तू इस स्त्रीजन में, प्राप्त हुए संसार फल-सरोखा क्यों अभिप्राय करता है ? रे मन! तू अप्राप्त इध वस्तु के संयोग को महान कष्ट उठा करके भी प्राप्त करने की चेष्टा करता है। अरे चित्त ! स्त्रियों से वियोग-प्राप्त किये जा रहे तुम उनकी प्राप्ति की बसो आकाङ्क्षा करते हो जैसे नष्ट हुए समस्त धन की पुनः प्राप्त करने को आकाङ्क्षा की जाती है। अरे चित्त ! तुम स्त्रोजन का संयोग प्राप्त करते हुए अपने को पिशाच से पकड़े हुए-सरीखे पीडित करते हो । आश्चर्य है कि इस लोक का यह अज्ञान क्या है ? जिससे यह लोक इस शरीर व स्त्रीजन के आभ्यन्तर स्वरूप को निरन्तर जानता हुआ भी उनकी प्राप्ति के लिए बंसा [वश्वनाथं ] प्रयत्नशील किया जाता है जैसे विदूषकों द्वारा राजाओं या नाटक-दर्शकों का समक्ष जो जो वस्तु तूने मेरी ली है, वह मेरे लिए दे जा । उसवे कहा-दे दो। ऐसा कहते ही वह तरफाल काल-कवलित हो गई। बाद में विद्वानों ने उस राजकुमार से पूछा-यह कैसी घटना है? तब उसने प्रस्तुत श्लोक पड़ा । अर्थात्मैंने इसके लिए राज्यादि छोड़ा-तथापि कठोर हृश्यवाली यह मुझे छोड़कर देधकेभी के साथ जा रही है।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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