SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तुर्थं माश्वासः ३७ बाह्यते । न वेत्तिाियाप्रतारितमुतुम्बरफलस्येवास्य कलेवरस्यान्तमत्सताम् । न चैतदवथा शौच्यं किं तु शल्यर्थ वराः करोतु जन्तुः 1 कर्मेव तावत्प्रथममनुकूलं न भवति जीवलोकस्य । यतः क्व निसर्गतः पर्वदिवसानीच पुराकृतपुष्य लवPaurngभानि प्राणिषु स्त्रीविलसितानि वव च तदुच्देवनकरागमः कृतान्तपश्वकुलसमः स्वच्छन्दवृत्तंर्गुणषिद्ध वणस्याधर्मरुरज्ञानतिमिरस्यैश्वर्य महाप्रहस्य च समवायः । यथाजनाभिप्रायमुपदशित विघयस्ते व ते चागमाः प्रमाणम् । उपलपित्तदेवपिचतिथिचेतसि हि पुंसि किमप्यशुभं कर्म न भवति दोषायेति, तेस्तनिदर्शनंरभ्युपगमयितारः प्रायेण समीपतः पुरुषाः । यौवनाविर्भावः पुनः कादम्बरोयोग इव परं मुमुक्षूणामपि नाविकार्य मनांसि विभापति । श्रीमदः सर्वेन्द्रियाणां जनुषाम्पत्यमिवाप्रतीकारमुपधातकरणम् । अनङ्गसिद्धान्तः खल्लोपदेश इवान भुजङ्ग मानामुत्परएनवण्डः । कवयः पुनः पिशाचा इव विषयेषु विभ्रमयन्ति निसर्गादजिह्मान्यपि चित्तानि । डिण्डिमध्वनिरिय पनव्या प्रबोधनकरः कलातामन्यासः । नियोगलाभ प्रापातसुन्दरः प्रसह्यत्मादयति सुविधोऽपि पुरुषान् । प्रणयजनfamrat eryपनिपत्य वर्षयति । याचितकमण्डनभिव छन्दानुवर्ती परिजनः । तदेतेष्वेकमप्यमुपहन्तुं प्राणिनः कि पुनरभीषां न समवायः । तदहमेवमनुसंभाषयेयम्, स्वयमुचितं कर्मानुष्ठातुमशक्तेः स्वव्यसनतपंणाय कामचारक्रियासु प्रवन्ते विवेकविलाः । न खलु जात्यपेक्षया पापमपापं धर्मो वा भवत्यधर्मः । स्यादपि यदि कर्मविपाकस्तथैव दृश्येत न समूह हँसी मंजाक के लिए प्रयत्नशील किया जाता है। यह लोक इस शरीर के बाहिरी वर्णन से धोखा खाया हुआ उदुम्बर फल - सरीखे इस शरीर की भीतरी ग्लानि नहीं जानता । अथवा इस विषय में शोक नहीं करना चाहिए । निस्सन्देह यह विचारा प्राणी क्या करे ? अनुक्रम से पूर्व में इस प्राणी समूह का पूर्वजन्म में किया हुआ कर्म अनुकूल (सुखजनक ) नहीं होता, क्योंकि कहाँ तो प्राणियों में वर्तमान स्त्रियों के विलसित ( प्रेमोधोतक हाव-भाव - आदि), जो कि स्वभाव से दीपोत्सव आदि पर्व दिनों सरीखे प्रमुदित करनेवाले हैं और जो पूर्वोपार्जित पुण्य-लेश के उदय से दुर्लभ हैं, और कहीं वह पुण्य का नाश करनेवाला मिथ्याशास्त्र, जो कि सिद्धान्त में कहे हुए पञ्चकुल बढ़ई व लुहार आदि-सरीखा आचार-विचार को नष्ट करता है। जो ( मिथ्याशास्त्र ), स्वच्छन्दवृत्ति, गुण-विद्वेषण, अधमंरुचि, अज्ञानरूप अन्धकार तथा ऐश्वयं महाग्रह उक्त पाँचों का समुदाय है । प्रस्तुत मिथ्या शास्त्र लोक के मानसिक अभिप्रायानुसार कर्तव्य प्रकट करने वाले हैं। अर्थात्जैसे जन साधारण चाहता है वैसा ही शास्त्र मिथ्या दृष्टि पड़ते हैं। वे आगम जगप्रसिद्ध सिद्धान्त ( वेद व स्मृतियाँ) प्रमाण माने जाते हैं । प्राय: करके समीपवर्ती पुरुष, 'देवता, पिता व अतिथियों को चित्त से तृप्त करनेवाले पुरुष से किया हुआ कोई भी अशुभ (पाप) कर्म निश्चय से दोपजनक नहीं होता' ऐसे खोटे दृष्टान्तों द्वारा अशुभ कर्म करानेवाले होते हैं। जवानी की उत्पत्ति मदिरापान सरीखी निश्चयसे मोक्षाभिलाषी पुरुषोंके चित्तों को भी बिना विकार प्राप्त किये विश्राम नहीं लेती । लक्ष्मो का मद पांचों इन्द्रियों के विनाश का कारण है, जो जन्मान्धसरीखा चिकित्सा के अयोग्य है । कामशास्त्र दुष्टोपदेश- सरीखा धन, धान्य व जीवन का क्षयरूपी सर्पों को जगानेवाली यत्रि है। फिर कवि लोग व्यन्तरों- सरीखे स्वभावसे सरल चित्तों को भी इन्द्रियों के विषयों में भ्रान्ति उत्पन्न कराते हैं। संगीत आदि कलामों का अभ्यास डमरू की ध्वनि सरीखा दुःखरूपों कालसर्प को जगानेवाला है । सचिव आदि उत्तम पदों की प्राप्ति सरीखा स्त्रीजनों का भोग प्रथमारम्भ में मनोहर प्रतीस होता हुआ हठात्कार से विशिष्ट विद्वान पुरुषों को भी उन्मत्त बना देता है। यह केवल उन्मत्त ही नहीं करता अपितु चित्त में प्राप्त हुआ दर्प कराता है । इच्छानुसारी परिवार याचना की हुई वस्तु को सुसज्जित करनेसरीखा केवल शोभा के लिए है। अतः इनमें से एक भो पदार्थ जब प्राणियों का विशेष रूप से पतन करने में
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy