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________________ १६० इति व विद्धयते । अन्यथाभूतस्याप्ततायाम् यशस्तिलकचम्पूकाव्ये आस्तां सवान्यवपि तावदतुल्यकामैश्वर्यमीश्वरपदस्य निमित्तभूतम् । वच्छेफसोऽपि भगवन्न गतोऽवसानं विष्णुः पितामहयुतः किमुतापरस्य ॥१८॥ इति, रथः क्षोणी बन्त शततिरगेन्द्रो धनुरथो रमाङ्ग चन्द्रार्को स्थचरणपाणिः शर इति । विघशांस्ते कोऽयं त्रिपुरतॄणमाडम्वरविधिविधेयैः क्रीडन्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुवियः ॥ ९६९ ॥ इति च पहिलभाषितम् । तथेदमपि न प्राप्रहरम् । अज्ञो जन्तुएनोशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गलवर्ग या वनमेव वा ॥ १००॥ इति, भोग्यामाहुः प्रकृतिमृषयश्चेतनाशक्तिशून्यां भोला नैनां परिणमयितुं बन्धवर्ती समर्थः । भोग्येऽप्यस्मिन्भवति मिथुने पुष्कलस्तत्र हेतुनोलग्रीवस्त्वमसि भुवनस्थापनासूत्रधारः ॥ १०१ ॥ इति च आकाशकल्पस्य aाशिषस्य परं प्रति प्रेरकता न युक्ता । स्वयं पराप्रेषित एवं शंभूर्भवेल्परप्रेरथितेति चिन्त्यम् ॥ व पुण्य-पाप कर्मों तथा उनके सुख दुःनरूप फलों से रहित हैं, ईश्वर है।' यह कथन तथा निम्नप्रकार कथन विरुद्ध प्रतीत होता है- 'नष्ट न होनेवाला ऐश्वर्य, स्वाभाविक वीतरागता स्वाभाविक तृप्ति ( सन्तोप ), जितेन्द्रियता, अत्यन्त - अनन्तमुख, आवरण- शून्य शक्ति और समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष जाननेवाला ज्ञान, समस्त गुण हे भगवन् ! तेरे में ही हैं ||२७|| यदि आप वीतरागी सदाशिव को आप्त (ईश्वर) मानोगे तो आपका निम्न प्रकार का कथन ( शिव रुद्र-स्तुति) विरुद्ध पड़ता है— 'हे भगवन् ! तुम्हारा दूसरा अनोखा व ईश्वर पद का निमित्तभूत ऐश्वर्य भी एक जगह रहे परन्तु ब्रह्मा सहित विष्णु ने भी जब आपके शेफ' ( रामवृन्द-परिवेष्टित जननेन्द्रिय या टि० से अभिप्राय के साधन ) का भी अन्त नहीं पाया तब दूसरे की क्या कथा ? भावार्थ-यहाँ पर यह बात विचारणीय है कि जब वीतरागी सदाशिव के शरीर ही नहीं है तब उसमें शेफ (जननेन्द्रिय) कैसे घटित हो सकता है ? अतः उक्त श्लोक में शेफ का कथन भी विरुद्ध है ||२८|| इसी प्रकार निम्नप्रकार ग्रहिल के वचन भी विरुद्ध हैं— 'जहाँपर पृथिवो हो रथ है, इन्द्र अथवा ब्रह्मा ही सारथि है, सुमेरुपर्यंत ही धनुष है और चन्द्र व सूर्य ही पहिये हैं एवं चक्रपाणि ( श्रीनारायण ) ही वाण हैं। इस प्रकार से त्रिपुररूप तृण को दग्ध करने के इच्छुक हुए तुम्हारी यह आडम्बर विधि क्या है ? क्योंकि प्रभु की वृद्धियाँ निश्चय से पराधीन नहीं होतीं परन्तु आज्ञाकारियों के साथ क्रीड़ा करती हुई होती हैं। अभिप्राय यह है-तब विष्णु प्रभूति को उक्त कार्य करने निमित्त क्यों एकत्रित किये ? ||९|| इसी प्रकार निम्न प्रकार का कथन भी श्रेष्ठ नहीं है - 'यह अज्ञानी प्राणो अपने सुख-दुःखों को उत्पत्ति में असमर्थ है, अल: ईश्वर के द्वारा प्रेरित हुआ स्वर्ग अथवा नरक जाता है ||१००||' इसी प्रकार निम्न प्रकार कथन भी विरुद्ध हैं--- 'ऋषियों ने प्रकृति की चेतना ( ज्ञान ) शक्ति से शून्य व भोगने योग्य कहा है और बन्ध सहित यह भोक्ता ( जीव ) प्रकृति को परिणमन कराने में समर्थ नहीं है और जब भागने योग्य स्त्री पुरुष का जोड़ा वर्तमान है, तब उसकी उत्पत्ति में प्रचुर या समर्थं कारण होना चाहिए, अतः हे शिव! तुम ही लोक की स्थापना करने के लिए सूत्रधार ( संसार रूपी नाट्यशाला के व्यवस्थापक या प्रधान कारण ) हो || १०१ ॥ आकाश सरीखे शरीर-रहित व व्यापक सदाशिव को दूसरे को प्रेरणा करनेवाला होना युक्तिसंगत नहीं है। यदि आप कहेंगे १. मेहनस्य – मयुपरिवेष्टितलिङ्गस्य समे मेहनशेफसी' वत्यमरः । तथा च विरागस्य सदाशिवस्य शरीराभावे शेफः कथं घटते इति विरुद्धं । वोफस: सावनस्य । २. रूपकालंकारः । 12 ह. दि. टि. प्रति ( ख ) से समुद्धृत-
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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