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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये मीतं मां तं च स महीपतिरवलोश्य पितृसतर्पणार्य निजसमाजसत्वरसवतीकाराय समर्पयामास । तत्र छ तदुपयोगमात्र. तपा प्रत्यहमुस्कृस्यमामकायकवेशः अहं पिता पूर्वभवेऽस्य राज्ञः पितामही चाम्बुचरोऽयमासीत् । इयं व्यवस्था ननु नाविवानीमहमासुलार्घ च विधिः किस्तषः ।।३८t इति विचिन्तयन्स चाहं च कर्यकथमपि जीवितमस्यणाय । पुनरहो एमधनंजय, तामेव समस्सा भूतजननीमुज्जयिनी निकषा तमतानिनजेणाजीबनोटजाकुले बम्लबवरोफरीरप्राएअपाक्षिप्तपर्यन्तस्थले काहिनामके प्रामधामके स जलव्यालो महत्पुरभसंदर्भ छगलो बभूव । अहं च तव छगलः । पुनरावयोतिक्रान्ते वर्करभाषवृत्तान्ते जातस्मरस्मयस्तामैवाहमजाममिक्रामग्नशिलोरणीभक्षुभितविनाविकटाधिपतिनाताक्ष को ) और उसे ( शिशुमार को) देखकर पितरों के सन्तर्पण के लिए ब्राह्मण-समूह की सदावतंशाला के रसोइए के लिए समर्पण कर दिया। उन ब्राह्मणों को सदावर्तशाला में ब्राह्मणमात्र का भोजन होने से मेरे शरीर का एक भाग प्रत्येक दिन काटा जा रहा था । और निम्नप्रकार विचार करके मैं (रोहिताक्ष मत्स्य। और बह शिशुमार दोनों महान् कष्टपूर्वक कालकवलित हुए 1 पूर्वजन्म में मैं इस यशोमति महाराज का पिता ( यशोपर) था और यह शिशुमार ( मकर ) पिता की माता थी। निश्चय में इस समय हम दोनों की ऐसी [ कष्टप्रद] व्यवस्था है। यह विधि ( कर्तव्यता ) ब्राह्मणों के भोजन से हमारे सन्तुष्ट कराने के निमित्त है। ॥ ३८॥ तदनन्तर महो धर्मधनञ्जय ( धनुर्विद्या में अर्जुन सरीखे अथवा धर्मरूपी धन से उत्कृष्ट अथवा धर्मरूपी धन का उपार्जन करनेवाले ) हे राजन् ! वह पूर्वोक्त चन्द्रमति का जीव शिशुमार ( मकार-विशेष ), अनेक शाश्चयों की उत्पत्ति भूमि उस उज्जयिनी नगरी के समीपवर्ती 'कङ्काहि नामवाले ग्रामस्थान में, जो कि ऊन का बिछौना या चादर एवं चर्ममयी पलान इन दोनों का उदरपुरण व्यवसाय करनेवालों के गृहों से च्याप्त है एवं जिसका समीपवर्ती स्थल, बबूल, बेरो, व करीर. इन वृक्षों की बहुलताबाले छोटे वृक्षों के अग्रभागों से वेष्ठित है, मेढों के झुण्ड के मध्य बड़ी बकरी हुआ। मैं ( यशोधर का जीच रोहिताक्षमच्छ) उसी कङ्काहि नामके ग्राम में मेड़ों के समूह के मध्य बकरा हुआ। जब हम दोनों { बकरी व बकरा ) का शैशवकाल का वृत्तान्त व्यतीत हुआ। अर्थात्-शिशुमार के जोव बकरी के उदर से उत्पन्न होकर जब मेरा शैशवकाल व्यतीत हुआ तन में, जिसको कामदेव का दर्प ( मद ) उत्पन्न हुआ है, अर्थात् जवान हुआ और जब उसी चन्द्रमति के जीव बकरी के साथ काम सेवन कर रहा था तब ऐसे मेढ़ों के समूह के स्वामी ने, जिसका चित्त, समस्त मेड़ों के क्षोभ से कुपित्त हुआ है, विशेष तीक्ष्ण सींगों से जिलके मर्म (जीव) स्थानों में निष्ठुर प्रहार किया गया है, ऐसा हुआ में वीर्यधातु के क्षरणानन्तर ही वैसे अपने को अपने द्वारा उत्पन्न करता हुआ जेसे श्री ब्रह्मा, अपने को अपने द्वारा उत्पन्न करता है। अर्थात्-मैं ( यशोवर का जीव बकरा ) दूसरी बार भी उसो पूर्वोक्त बकरी के गर्भ में बकरा रुप से स्थित हमा। तदनन्तर कुछ महीनों के व्यतीत हो जाने पर मैंने जन्माबसर प्राप्त किया। ___ इसी अवसर पर ( मेरी जन्म प्राप्ति के समय ) वह यशोमति कुमार निम्न प्रकार पड़े हुए नीतिशास्त्र का भी अनादर करके शिकार के लिए निकला। कैसा है वह यशोमति कुमार ? जिसके चित का विस्तार १. जात्यलंकारः।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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