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________________ पञ्चम आश्वासः तीवतीइणविषानिमितमममहारः सौम्यमासुमाप्तामन्तरमेघ प्रेतभावमनुसर स्वयंभूरिदात्मनात्मानभुत्पाचयामास । अभूवं पातिक्रान्तेयु कतिचितिपक्षेषु प्राप्तप्रसबावसरः । अत्रान्तरे स यशोमतिकुमारः पापद्धिप्रबुद्धभनस्कारस्तत्फलमिहद जन्मनि दर्शयन्निव विरितनिखिलराजलक्ष्मीचिह्नः कूटशाल्मलितासम्बनबन्धनरिव लताप्रतानढोग्रन्थिलमौलिनरकान्यकारकालकादमिकांशुकाधिकृतकायपरिकरः दवभ्राटदोप्रवेशदण्डकसकाण्डकोवण्डोनचण्डदोईण्डमण्डल: कीनाशपाशाकारागुरोर्तसितांसः प्रादुर्भवदुरन्तपातकपातपिशुनरिष श्वगणिभिः समावरितपुरःप्रचारः कृतान्तानीकभोकररनणुकोणोरकूणितपाणिभिः फिरातः परिवृतः पवातिरिव राफलसवसंघापसाधितमतिः 'स्तेन वितिषव्यालश्वापदप्रभवं भयम् । शर्मधर्मविरामश्च मृगयायां महीपतेः' ॥३९॥ इति नीतिममीतामध्यवमत्य मृगयार्थ निश्चत्राम । प्रविवेश = वनदेवताविनिवेदिततशगमनमिव प्रशान्तसमस्तसत्त्वसंचारं कान्तारम् । शिकार-क्रीड़ा में विशेष वृद्धिंगत हुआ है। जिसने राज्य लक्ष्मी के चिह्न (छत्र, चमर व ध्वजा-आदि) छोड़ दिये हैं, इससे ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-जो इसी जन्म में लोगों को शिकार खेलने का फल प्रदर्शित कर रहा है। अर्थात्-शिकार खेलनेवाला मानव अगले जन्म में राज्य लक्ष्मो के चिह्नों ( छत्र आदि ) से च्युत होता है, इस घटना को इसी भव में लोगों को दिखाता हुवा ही मानों-वह राज्यलक्ष्मी के चिह्नों का त्यागनेवाला हुआ। जिसने अपना मस्तक, लताश्रेणियों से विशेष रूप से ऊपर बांधा है, जो ( लताएँ ) ऐसी मालूम पड़तो थों-मानों-कूटशाल्मलि तरु ( नरक में दण्ड देने का वृक्ष विशेष) पर लटकने वाले बन्धन ही हैं। जिसका शारीरिक बेष नरक के अन्धकार सरीखे काले ब कृष्ण वर्ण बाले वस्त्र से बंधा हुआ है। जिसका विशेष प्रचण्ड (बलिष्ठ या भयानक ) बाहरूपोदण्ड मण्डल नरकरूपी अटवी में प्रवेश करने के लिए क्षमार्ग सरीखे बाणसहित घनुष पर वर्तमान है। जिसके दोनों कन्ये यमराज के जाल सरीखी मृगवन्धनो से मुफुट-युक्त हैं । कुत्तों के स्वामियों ने जिसको अग्रसरता प्राप्त की है। जो ऐसे मालूम पड़ते थे-मानों-प्रकट होते हुए दुष्टस्वभाव. वाले पाप के आगमन के सूचक ही हैं। जो यमराज के सेन्य-सरीखे भयङ्कर व महान् दण्ड से संकुचित हस्तवाले किरातों ( म्लेच्छों) से वेष्टित है। पैदल चलनेवाले सैनिक सरीखे जिसने समस्त प्राणियों को कष्ट देने में या भय उत्पन्न करने में अपनी बुद्धि स्वीकार की है। किसप्रकार के नोतिशास्त्र का अनादर करने वह शिकारनिमित्त निकला? राजा को शिकार खेलने में चोरों, शत्रुओं, विष, सौ व सिंह-व्याघ्रादि हिंसक जन्तुओं से उत्पन्न होनेवाला भय होता है एवं शिकार खेलने से उनके सुख व धर्मका नाश होता है और 'च' शब्द से शीलभङ्ग व प्रजा को क्षति आदि दोष उत्पन्न होते हैं ।। ३९॥ तत्पश्चान्-बह ऐसे वन में प्रविष्ट हुआ, जहाँपर समस्त मृग-आदि जीवों का प्रवेश शान्त होगया है। अर्थात्-उसके आने पर समस्त मृग-आदि जीव भाग गए। अत: समस्त प्राणियों के प्रवेश से शून्य हुआ वह ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-जिसमें बनदेवताओं ने उसका आगमन कह दिया है। वहाँ पर उसे शिकार नहीं मिली; क्योंकि यमराज के पेशकारों ( जीवधारियों के पुण्य-पाप का लेखा-जोखा करने वालों) ने पृथिवीतल पर संचार करनेवाले ( मृगादि ), बिलों में बिहार करनेवाले ( सदि) व जल में विहार करनेवाले ( मछली-आदि ) एवं अन्तराल-( आकाश ) विहारी ( कबूतर-आदि ) जीवों को वर्तमान. काल में भी शस्त्रादि से नष्ट होनेवाली आयु से रहित कहा है। अतः वह कोध से रक्तमध्य भागवाले नेत्रों के प्रान्तभागों के विस्तारों से मानों-अपने क्रोधरूपी देवता की रुधिर-पूजा को वखेरसा हुआ-सा प्रतीत हो
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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