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________________ १२६ यशस्तिलकचम्पूकाच्ये स्थल विषजलान्तराल विहारिणां प्राणिनामद्यापि चित्रगुप्तेनापरिमृष्टमानस्यादनासादितहिसः कोपारुणान्तरंरपानप्रसरः वामदेवतायाः शोणितोपहारभित्र विकिरस्तस्य गताविक कसनाथस्य यूथस्य मध्येन प्रध्यावतं मानस्तिर्यग्गतिमार्गोस्लेवेन कपोलस्थली चुम्बनोन्मुखनायोमुखेन मारव्यकृतयस्तवृन्दारकस्तं मदीयां मातरं च निविभे । तावता चापर्याप्तपरितोषः स्वयमेव तदुदरमवदारयत् । ववर्श व मामला लग्नकलिन मित्र विवर्तमानयपुषम् | आयुषः शेषराव विहितप्रमोतभावभवाप्तसग्नरतसूपशास्त्राषिगम्पाटबाय पौरोगवाय पोषणार्थमपयत् । तवहं गेह एव पोष्यमाणतनूनां छागलधेनूनां शून्यस्तनावले हलालोपरि रवतीगृहे अतिकराधिकविवेकेषु पाचकलोकेषु पिशिताको पदेशदानडुर्ललित हुदयामात्मकमवियातय संपन्नस्तिवित्रगात्री मनवरत पर देवयास्वादासीदम्भन्धमक्षिकाक्षेपक्षोभपात्रमतिप्रतिपूयपिहितनासिकस विधसंच रत्परिवारों स्वकीयेन दारिकाजनेन यं ल हले, पापकर्मा सकल राजायगारा अमृतमतिमहादेवी तं निखिलभुवनमामनीयमनङ्गावतारं यशोधरमहाराजं गलप्रयोगादृवृष्टान्तोर्लि विषाय तत्फलेन संवति संजाता सकलकुष्ठापिष्ठानम्' इति द्वन्द्वमितस्ततो मन्त्रयमाणेन राजपरिजनलज्जिकास माजेन च कृतधिकारपरम्परां कथमपि विदित्वा कथं नाम भवे रहा था। उसने बकरियों, मेढा-समूह व गारड़-समूह से सहित उक्त वकरा - समूह को मध्य में करके वापिस लौटते हुए ऐसे लोहे की नोक के तीर से, जो तिरछी गति के मार्ग का उल्लेख करनेवाला है एवं जिसका पुङ्ख (पत्रा) प्रशस्त पोस्थली के चुम्बन (मुख- स्पर्धा ) से सन्मुखोभूत है, बकरों में से मुख्य बकरे को वाण का निशाना बनाया। जिससे उसने मेरो माता बकरी को विदीर्ण कर दिया। उतने मात्र से उसे पर्याप्त सन्तोष नहीं हुआ, अतः परिपूर्ण संतोष प्राप्त करने के लिये उसने स्वयं बकरी का पेट फाड़ डाला, जिससे कम्पायमान शरीखाले एवं अङ्गारपुञ्ज के ऊपर धारण किये हुए मांस सरीखे मुझे ( यशोधर के जीव गर्भस्थित वकरे को देखा। फिर मेरो आयु शेष होने से उसने मुझे नहीं मारा और समस्त पाकशास्त्र की पटुता प्राप्त करनेवाले रसोइए के लिए प्रतिपालन- निमित्त दे दिया। तत्पश्चात् पुष्ट शरीरवाली बकरियों के दुग्ध शून्य थनों के आस्वादन करने से लार से शरीर को लिप्स करनेवाले मैंने किसी प्रकार से भी ऐसी अनन्तमती महादेवी को जाना, जिसका हृदय उसी रसोईघर में समस्त रसों ( मधुर व आम्ल आदि ) की प्रसाधन विधि के संबंध में विशेष निपुण रसोइयों के समूहों के मध्य मांस पकाने की शिक्षा देने में आसक है। अपने पापकर्म के उदय से उसो भव में जिसके शरीर में श्वेत कुष्ठ उत्पन्न हुआ है। जो निरन्तर विदारण किये जानेवाले शरीर की पौष-बरह के आस्वादन के लिए बैठती हुई ( आती हुई ) प्रचुर मक्खियों के फेंकने अथवा चूर्ण करने में उत्पन्न हुए क्षोभ ( शरोर मोड़ना ) की पात्री ( भाजन ) हैं एवं अत्यन्त दुर्गेन्व पीप के बहने से नाँक बन्द करनेवाला परिवार जिसके समीप प्रवेश कर रहा है तथा जिसकी निम्नप्रकार तिरस्कार-श्रेणी अमृतमति की दागी समूह से ब ऐसी राजपरिवार की दासी समूह से, जो कि यहाँ वहाँ स्त्री पुरुषों के जोड़े को बुला रही है एवं दूसरे लोगों द्वारा की गई है। 'हे सखी! यह अमृतमत्ति महादेवी विशेष पापिनो व समस्त दुराचारों की गृहप्राय है, क्योंकि इसने उस समस्त जगत् के पूज्य व कामस्वरूप यशोवर महाराज को विष प्रयोग से मार डाला, पाप के फल से यह समस्त अठारह प्रकार के कुष्ठ-समूह का गृह हुई ।' प्रसङ्गानुवाद - तदनन्तर मैंने ( यशोधर के जीव बकरे ने ) निम्नप्रकार चितवन करते हुए राजमहल की उसी भोजनशाला में कुछ महीने व्यतीत किये। अमृतमति महादेवी का यह केशकलाप मकड़ियों के तन्तुसमूह - सरीखा विरूपका – कुछ शुभ्र क्यों हुआ ? मोर यह भोहों का जोड़ा शतखण्ड किये हुए शरीर वालं पिंजड़ा - सरीखा क्यों हो गया ? एवं उसके नेत्रयुगल दावानल अग्नि से दुग्ध हुई-सी कान्ति-होनता धारण करता हुआ दिखाई दे रहा है तथा इसका यह शरीर घुणों ( कीड़ों ) द्वारा किये हुए छिद्र-समूह से नीचे गिरते
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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