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________________ पञ्चमं आश्वासः ५२७ अलिकुलमिदं लूतासन्तुप्रतानभिसरं मनप्तिमधनुनाले जीर्यसनुस्थितिपञ्जरम् । सुषलयवन दय निम्नाबाई घुणवरमरभ्रस्यरस्तम्भप्रभाषमभूतपुः ।।४।। अथवा न चतदाश्चर्यम् । यतः। स्वामिदोडा त्रीवषो, शलहिंसा, विश्वस्तानां धातनं. लिङ्गभेवः । प्रायेणतत्पश्चर्फ पातकानां कुर्यास्सथः प्राणिनः प्राप्तःस्त्रान् ॥४१॥ इति विचिन्तयन् कतिचिधिशदावानतियाहयामास । इत्तश्च कलिङ्गाविषयेषु महसि महिषीसमुदने महो स्वकीयपशःकुसुमसौरभोन्मादितबुधमधुपसमाज महाराज, रक्तप्रान्तविलोललोचनयुगः प्रोगप्रतिष्ठाननः प्रोस्कूणामविषाणभीषणयपु लाम्जनाविनभः । वस्कर्णः पृथकन्धरो गुरुलुरः स्यूलप्रिमोरयला सा मृत्वा कमनीयवासधिरभूमधागी पुनः कासरः ॥४२॥ पुनरसावशेषमहिषपरिपतिशापिशरीरसंनिवेशः सार्थपाभिवस्वीकारवशात् मुनदुःखानुभवार्थ मिलकमंगलपहात्सुदूरोऽपि । जालावसम्मतिमिधज्जन्तुर्यमसमयमायाति ॥४३॥ यत्र मुखं घा नुः लिखितं निटिले यपास्य देवेन । तत्रापासि प्राणी पाशाकृष्टः पत त्रीव ॥४४॥ हुए स्तम्भ-( सम्भा) सरीखी शोभावाला क्यों हो गया? ।। ४० ॥ अथवा ऐसा होना उचित ही है, यह आश्चर्यजनक नहीं है। क्योंकि ये पांच महापाप प्रायः करके प्राणियों को तत्काल ( उसी जन्म में) दुःखों को प्राप्त करनेवाले कर देते हैं। राजहत्या, स्त्रीहत्या, बच्चों का वध, अभयदान दिये हुए का धात और जननेन्द्रिय का छेदन करना ।। ४१ ।। अथानन्तर अपने यशरूपी पुष्पों की सुगन्धि से चितरजनरूपी भ्रमर-समूह को हापित करनेवाले हे महाराजाधिराज ! इस प्रस्ताव में कलिङ्ग देशों ( दन्तपुर से व्याप्त कोटिशिला देशों) में महान् भैंसों की श्रेणी के मध्य में वह चन्द्र पति का जीव बकरी बाण से भेदी जाने से मरकर फिर ऐसा भैंसा हुई। जिसके दोनों नेत्र रक्त प्रान्त वाले व चञ्चल हैं। जिसका मुख नासिका के समीपवर्ती है। जिसका शरीर तीक्ष्ण अग्रभाग वाले सींगों से भयानक है। जिसको कान्ति नीलपर्वत व अस्ताचल पर्वत-सरीखी (कृष्ण) है। जो ऊँचे कानों वाला व विस्तीर्ण गर्दनशाली एवं महान् खुरों वाला है। जिसका त्रिक (पौंठ का नीचा प्रदेश-पीठ के नीचे जहां तीन हाड़ मिले हैं उस जोड़ का नाम ) और उरःस्थल (आगे का भाग--- यक्षःस्थल ) मांसल-विशेष पुष्ट है एवं जो मनोहर पूंछवाला है' ॥ ४२ ॥ फिर भी यह प्रस्तुत भै सा ( चन्द्रमति का जीव ), जिसको शरीर-रचना समस्त भैसानों के झुण्ड से विशेषता लिये हुए है, सौदागरों के स्वामी द्वारा खरीदने के अधीन होने से, ( किसी ने बंचा और सौदागरों के स्वामी से खरीदा जाने के कारण ) उसी उज्जयिनी नगरी में, जो कामिनियों के भोगरूपी हसों के अवतरण के लिए महासरोवर-सरीखी है, मानों-निम्नप्रकार के सुभाषित श्लोकों का सत्यार्थता में प्राप्त कराता हुआ ही प्राप्त हुआ । यह जीव विशेष दुरवर्ती होकर को भी अपने पुण्य-पाप कर्मों को गले में स्वीकार करने से अथवा अपने-अपने कर्मरूपी लोहे के कांटे को ग्रहण करने से, सुख-दुःख भोगने के निमित्त मृत्यु की अधीनता में वैसा आता है जैसे जाल में फंसी हुई मछली, मृत्यु की अधीनता में आती है ॥ ४३ ।। यह जीव जाल से खींचे हुए पक्षी-सरीखा उस स्थान पर आता है, जिस स्थान पर विधाता ने इस प्राणो के ललाट पर जिस प्रकार से १. जारयुपमा कारः। २. गल: लोहकष्टकः सं. टी. पृ० ३१७ से संकलित-सम्पादक ३. उपमालंकारः ।
SR No.090546
Book TitleYashstilak Champoo Uttara Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages565
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, P000, & P045
File Size17 MB
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